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________________ सप्तम अध्ययन : रोहिणीज्ञात ] [ 199 करके और उन मित्र ज्ञाति निजक स्वजन आदि तथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगृह-वर्ग का अशन, पान, खादिम, स्वादिम से तथा धूप, पुष्प, वस्त्र, गंध, माला, अलंकार आदि से सत्कार करके, सन्मान करके, उन्हीं मित्र ज्ञाति आदि के समक्ष तथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगृहवर्ग (मैके के सभी लोगों) के समक्ष पुत्रवधुओं की परीक्षा करने के लिए पांच-पांच शालि-अक्षत (चावल के दाने) दूं। इससे जान सकूगा कि कौन पुत्रवधु किस प्रकार उनकी रक्षा करती है, सार-सम्भाल रखती है या बढ़ाती है ? वधू-परीक्षा ५--एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाव' मित्त-णाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं चउण्हं सुण्हाणं कुलवरवग्गं आमंतेइ, आमंतिता विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ। धन्य सार्थवाह ने इस प्रकार विचार करके दूसरे दिन मित्र, ज्ञाति निजक, स्वजन, संबंधी जनों तथा परिजनों को तथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगृह वर्ग को आमंत्रित किया / आमंत्रित करके विपुल, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाया। ६-तओ पच्छा व्हाए भोयणमंडवंसि सुहासणवरगए मित्त-णाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणेणं चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गेणं सद्धि तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसादेमाणे जाव सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारित्ता सम्माणित्ता तस्सेव मित्त-णाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणस्स चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ पंच सालिअक्खए गेण्हइ, गेण्हित्ता जेठं सुण्हं उज्झिइयं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'तुमं णं पुत्ता! मम हत्थाओ इमे पंच सालिअक्खए गेण्हाहि, गेण्हित्ता अणुपुब्वेणं सारक्खेमाणी संगोवेमाणी विहराहि / जया णं अहं पुत्ता ! तुम इमे पंच सालिअक्खए जाएज्जा, तया णं तुम मम इमे पंच सालिअक्खए पडिनिज्जाएज्जासि' त्ति कटु सुण्हाए हत्थे दलयइ, दलइत्ता पडिविसज्जेइ। उसके बाद धन्य सार्थबाह ने स्नान किया / वह भोजन-मंडप में उत्तम सुखासन पर बैठा / फिर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी एवं परिजनों आदि के तथा चारों पुत्रवधुनों के कुलगृह वर्ग के साथ उस विपुल, अशन, पान, खादिम और स्वादिम का भोजन करके, यावत् उन सबका सत्कार किया, सम्मान किया, सत्कार-सन्मान करके उन्हीं मित्रों, ज्ञातिजनों आदि के तथा चारों पुत्रवधूत्रों के कलगहवर्ग के सामने पाँच चावल के दाने लिए। लेकर जेठी कलवध उज्झिका को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा-हे पत्री! तम मेरे हाथ से यह पांच चावल के दाने लो। इन्हें लेकर अनुक्रम से इनका संरक्षण और संगोपन करती रहना / हे पुत्री ! जब मैं तुम से यह पांच चावल के दाने मांगू, तब तुम यही पांच चावल के दाने मुझे वापिस लौटाना।' इस प्रकार कह कर पुत्रवधू उज्झिका के हाथ में वह दाने दे दिए / देकर उसे विदा किया। ७-तए णं सा उज्झिया धण्णस्स तह त्ति एयमझें पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता धण्णस्स सत्थवाहस्स हत्थाओ ते पंच सालिअक्खए गेण्हइ, गेण्हित्ता एगंतमवक्कमइ, एगतमवक्कमियाए इमेयारूवे अज्झथिए जाव (चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे) समुपज्जेत्या-एवं खलु तायाणं कोट्ठागारंसि 1. प्र. अ. 28 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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