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________________ सप्तम अध्ययन : रोहिणीज्ञात ] [195 पान, गंध-माला आदि से सत्कार किया / तत्पश्चात् पहले की ही भांति पुत्रवधुओं को सबके समक्ष बुला कर पांच-पांच दाने, जो पहले दिए थे, वापिस मांगे। पहली पुत्रवधू ने कोठार में से लाकर पांच दाने दे दिए / धन्य सार्थवाह ने जब पूछा कि क्या . ये वही दाने हैं या दूसरे ? तो उसने सत्य वृत्तान्त कह दिया / सुन कर सेठ ने कुपित होकर उसे घर में झाड़ने-बुहारने आदि का काम सौंपा / कहा- तुम इसी योग्य हो। दूसरी पुत्रवध ने कहा-'आपका दिया प्रसाद समझ कर मैं उन दानों को खा गई है।' सार्थवाह ने उसके स्वभाव का अनुमान करके उसे भोजनशाला संबंधी कार्य सौंपा। तोसरी पुत्रवधू ने पाँचों दाने सुरक्षित रक्खे थे, अतएव उसे कोषाध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया। चौथी पुत्रवधू ने कहा-पिताजी, वे पांच दाने गाड़ियों के विना नहीं आ सकते / उन्हें लाने को कई गाडियां चाहिए। जब धन्य सार्थवाह ने स्पष्टीकरण मांगा तो उसने सारा ब्यौरा सुना दिया / गाड़ियां भेजी गई / दानों का ढेर पा गया / धन्य यह देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए / सब के समक्ष रोहिणी की भूरि-भूरि प्रशंसा की। उसे गृहस्वामिनी के गौरवपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित किया। कहा-'तू प्रशंसनीय है बेटी ! तेरे प्रताप से यह परिवार सुखी और समृद्धिशाली रहेगा।' / शास्त्रकार इस उदाहरण को धर्म-शिक्षा के रूप में इस प्रकार घटित करते हैं जो व्रती व्रत ग्रहण करके उन्हें त्याग देते हैं, वे पहली पुत्रवधू उज्झिता के समान इह-परभव में दुःखी होते हैं / सब की अवहेलना के भाजन बनते हैं / जो साधु पाँच महाव्रतों को ग्रहण करके सांसारिक भोग-उपभोग भोगने के लिए उनका उपयोग करते हैं, वे भी निंदा के पात्र बन कर भवभ्रमण करते हैं। जो साधु तीसरी पुत्रवधू रक्षिका के सदृश अंगीकृत पाँच महाव्रतों की भलीभांति रक्षा करते हैं, वे प्रशंसा-पात्र होते हैं और उनका भविष्य मंगलमय होता है। जो साधु रोहिणी के समान स्वीकृत संयम की उत्तरोत्तर वृद्धि करते हैं, निर्मल और निर्मल तर पालन करके संयम का विकास करते हैं, वे परमानन्द के भागी होते हैं / यद्यपि प्रस्तुत अध्ययन का उपसंहार धर्मशिक्षा के रूप में किया गया है और धर्मशास्त्र का उद्देश्य मुख्यतः धर्मशिक्षा देना ही होता है, तथापि उसे समझाने के लिए जिस कथानक की योजना की गई है वह गार्ह स्थिक-पारिवारिक दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। 'योग्यं योग्येन योजयेत्' यह छोटी-सी उक्ति अपने भीतर विशाल अर्थ समाये हुए है। प्रत्येक व्यक्ति में योग्यता होती है किन्तु उस योग्यता का सुपरिणाम तभी मिलता है जब उसे अपनी योग्यता के अनुरूप कार्य में नियुक्त किया जाए / मूलभूत योग्यता से प्रतिकूल कार्य में जोड़ देने पर योग्य से योग्य व्यक्ति भी अयोग्य सिद्ध होता है। उच्चतम कोटि का प्रखरमति विद्वान बढ़ई-सुथार के कार्य में अयोग्यतम बन जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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