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________________ 192] [ज्ञाताधर्मकथा उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के जेष्ठ (प्रथम) शिष्य इन्द्रभूति नामक अनगार श्रमण भगवान् महावीर से न अधिक दूर और न अधिक समीप स्थान पर रहे हुए यावत् निर्मल उत्तम ध्यान में लीन होकर विचर रहे थे। तत्पश्चात् जिन्हें श्रद्धा उत्पन्न हुई है ऐसे इन्द्रभूति अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से इस प्रकार प्रश्न किया-'भगवन् ! किस प्रकार जीव शीघ्र ही गुरुता अथवा लघुता को प्राप्त होते हैं ?' भगवान् का समाधान ५-'गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे एगं महं सुक्कं तुबं णिच्छिदं निरुवहयं दम् हिं कुसेहि वेढेइ, वेढिता मट्टियालेवेणं लिपइ, उण्हे दलयइ, दलइता सुक्कं समाणं दोच्चं पि दभेहि य कुसेहि य वेढेइ, वेदिता मट्टियालेवेणं लिपइ, लिपित्ता उण्हे सुक्कं समाणं तच्चं पि दबभेहि य कुसेहि य वेढेइ, वेढिसा मट्टियालेवेणं लिपइ। एवं खलु एएणवाएणं अंतरा वेढेमाणे अंतरा लिपेमाणे, अंतरा सक्कवेमाणे जाव अहि मट्रियालेवेहिं आलिपइ, अत्थाहमतारमपोरिसियंसि उदगंसि पक्खिवेज्जा / से णूणं गोयमा ! से तुबे तेसि अटुण्हं मट्टियालेवेणं गुरुययाए भारिययाए गरुयभारिययाए उप्पि सलिलमइवइत्ता अहे धरणियलपइट्ठाणे भवइ / एवामेव गोयमा ! जीवा वि पाणाइवाएणं जाव (मुसावाएणं अदिण्णादाणेणं मेहुणेणं परिग्गहेणं जाव) मिच्छादसणसल्लेणं अणुपुत्वेणं अट्ठकम्मपगडीओ समज्जिणंति / तासि गरुययाए भारिययाए गरुयभारिययाए कालमासे कालं किच्चा धरणियलमइवइत्ता अहे नरगतलपइट्ठाणा भवंति / एवं खलु गोयमा ! जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छंति / गौतम ! यथानामक-कुछ भी नाम वाला, कोई पुरुष एक बड़े, सूखे, छिद्ररहित और अखंडित तुबे को दर्भ (डाभ) से और कुश (दूब) से लपेटे और फिर मिट्टी के लेप से लीपे, फिर धूप में रख दे / सूख जाने पर दूसरी बार दर्भ और कुश से लपेटे और मिट्टी के लेप से लोप दे। लीप कर धूप में सूख जाने पर तीसरी बार दर्भ और कुश से लपेटे और लपेट कर मिट्टी का लेप चढ़ा दे / सुखा ले / इसी प्रकार, इसी उपाय से बीच-बीच में दर्भ और कुश से लपेटता जाये, बीच-बीच में लेप चढ़ाता जाये और बीच-बीच में सुखाता जाये, यावत् आठ मिट्टी के लेप उस तुबे पर चढ़ावे। फिर उसे अथाह, जिसे तिरा न जा सके और अपौरुषिक (जिसे पुरुष की ऊँचाई से नापा न जा सके) जल में डाल दिया जाये। तो निश्चय ही हे गौतम ! वह तुबा मिट्टी के आठ लेपों के कारण गुरुता को प्राप्त होकर, भारी होकर तथा गुरु एवं भारी होकर ऊपर रहे हुए जल को पार करके नीचे धरती के तलभाग में स्थित हो जाता है। इसी प्रकार हे गौतम ! जीव भी प्राणातिपात से यावत् (मृषावाद से, अदत्तादान से, मैथुन और परिग्रह से यावत्) मिथ्यादर्शन शल्य से अर्थात् अठारह पापस्थानकों के सेवन से क्रमशः पाठ कर्म-प्रकृतियों का उपार्जन करते हैं / उन कर्मप्रकृतियों की गुरुता के कारण, भारीपन के कारण और गुरुता के भार के कारण मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त होकर, इस पृथ्वी-तल को लांघ कर नीचे नरक-तल में स्थित होते हैं। इस प्रकार गौतम ! जीव शीघ्र गुरुत्व को प्राप्त होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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