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________________ पञ्चम अध्ययन : शैलक ] [ 171 इसके अतिरिक्त समस्त रात्रि-भोजन से विरमण, यावत् समस्त मिथ्यादर्शन शल्य से विरमण, दस प्रकार का प्रत्याख्यान और बारह भिक्षप्रतिमाएँ / इस प्रकार दो तरह के विनयमूलक धर्म से क्रमशः पाठ कर्मप्रकृतियों को क्षय करके जीव लोक के अग्रभाग में-मोक्ष में प्रतिष्ठित होते हैं। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में व्रतों का जो उल्लेख किया गया है, वह भी महावीर-शासन की अपेक्षा से ही समझना चाहिए जैसा कि पहले कहा जा चुका है। 'अंगसुत्ताणि' में मुनिश्री नथमलजी ने उल्लिखित पाठ के स्थान पर निम्नलिखित पाठ दिया और परम्परागत उल्लिखित सूत्रपाठ का टिप्पणी में उल्लेख किया है 'तत्थ णं जे से अगारविणए से णं चाउज्जामिए गिहिधम्मे, तत्थ णं जे से अणगारविणए से णं चाउज्जामा, तं जहा-सव्वाश्रो पाणाइवायाप्रो वेरमणं सव्वाप्रो मुसाबायानो वेरमणं, सव्वानो अदिण्णादाणाप्रो वे रमणं, सव्वाप्रो बहिद्धादाणाग्रो वेरमणं / ' अरिष्टनेमि के शासन की दृष्टि से यह पाठ अधिक संगत है। प्रस्तुत कथानक का सम्बन्ध भ० अरिष्टनेमि के काल के साथ ही है। सुदर्शन का प्रतिबोध ___ ३६-तए णं थावच्चापुत्ते सुदंसणं एवं वयासी-'तुम्भे णं सुदंसणा! किंमूलए धम्मे पण्णते ?' 'अम्हाणं देवाणुप्पिया! सोयमूले धम्मे पण्णत्ते, जाव' सगं गच्छति / तत्पश्चात् थावच्चापुत्र ने सुदर्शन से कहा-सुदर्शन ! तुम्हारे धर्म का मूल क्या कहा गया है ? सुदर्शन ने उत्तर दिया-देवानुप्रिय ! हमारा धर्म शौचमूलक कहा गया है। वह शौच दो प्रकार का है-द्रव्यशौच और भावशौच / द्रव्यशौच जल और मिट्टी से तथा भाव-शौच दर्भ और मंत्र से होता है / अशुचि वस्तु मिट्टी से माँजने से शुचि हो जाती है और जल से धो ली जाती है / तब अशुचि शुचि हो जाती है / ] इस धर्म से जीव स्वर्ग में जाते हैं। (शुक का पूर्ववणित उपदेश यहाँ पूरा दोहरा लेना चाहिए / ) ३७-तए णं थावच्चापुत्ते सुदंसणं एवं वयासी--'सुदंसणा! जहानामए कई पुरिसे एगं महं रुहिरकयं वत्थं रुहिरेण चेव धोवेज्जा, तए णं सुदंसणा! तस्स रुहिरकयस्स रुहिरेण चेव पक्खालिज्जमाणस्स अस्थि कोइ सोही ? __ 'णो तिणठे समठे।' तब थावच्चापुत्र अनगार ने सुदर्शन से इस प्रकार कहा-हे सुदर्शन / जैसे कुछ भी नाम वाला कोई पुरुष एक बड़े रुधिर से लिप्त वस्त्र को रुधिर से ही धोए, तो हे सुदर्शन ! उस रुधिर से ही धोये जाने वाले वस्त्र की कोई शुद्धि होगी? सुदर्शन ने कहा-यह अर्थ समर्थ नहीं, अर्थात् ऐसा नहीं हो सकता-रुधिर से लिप्त वस्त्र रुधिर से शुद्ध नहीं हो सकता / ३८–एवामेव सुदंसणा! तुन्भं पि पाणाइवाएण जाव मिच्छादसणसल्लेणं नत्थि सोही, जहा तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चेव पक्खालिज्जमाणस्स नत्थि सोही। 1. पंचम अ. सूत्र 31. पंचम अ. सूत्र 35. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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