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________________ 164] [ ज्ञाताधर्मकथा है ? मुनिदीक्षा जीवन के अन्तिम क्षण तक उग्र साधना है और सच्चे तथा परिपक्व वैराग्य से ही उसमें सफलता प्राप्त होती है / थावच्चापुत्र परख में खरा सिद्ध हुआ / उसके एक ही वाक्य ने कृष्ण जी को निरुत्तर कर दिया। उन्हें पूर्ण सन्तोष हो गया। 21- तए णं से कण्हे वासुदेवे थावच्चापुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासो-'गच्छह णं देवाणुप्पिया ! बारवईए नयरीए सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर जाव [महापह-पहेसु] हत्थिखंधवरगया महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणा उग्घोसेमाणा उग्घोसणं करेहएवं खलु देवाणुप्पिया ! थावच्चापुत्ते संसारभउविग्गे, भीए जम्मणमरणाणं, इच्छइ अरहओ अरिठ्ठनेमिस्स अंतिए मुडे भवित्ता पव्वइत्तए / तं जो खलु देवाणुप्पिया! राया वा, जुवराया वा, देवी वा, कुमारे वा, ईसरे वा, तलवरे वा, कोडुबिय-माडंबिय-इन्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाहे वा थावच्चापुत्तं पव्वयंत तमणुपन्बयइ, तस्स णं कण्हे वासुदेवे अणुजाणाइ. पच्छातूरस्स बिय से मित्त-नाइ-नियगसंबंधि-परिजणस्स जोगवखेमं वद्रमाणों पडिवहइत्ति कट्ट घोसणं घोसेह।' जाव घोसंति / थावच्चापुत्र के द्वारा इस प्रकार कहने पर कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा---'देवानुप्रियो ! तुम जानो और द्वारिका नगरी के शृगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर (महापथ तथा पथ) आदि स्थानों में, यावत् श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर आरूढ होकर ऊंची-ऊँची ध्वनि से उद्घोष करते, ऐसी उद्घोषणा करो-'हे देवानुप्रियो ! संसार के भय से उद्विग्न और जन्म-मरण से भयभीत थावच्चापुत्र अर्हन्त अरिष्टनेमि के निकट मुडित होकर दीक्षा ग्रहण करना चाहता है तो हे देवानुप्रिय ! जो राजा, युवराज, रानी, कुमार, ईश्वर, तलवर, कौटुम्बिक, माडंबिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति अथवा सार्थवाह दीक्षित होते हुए थावच्चापुत्र के साथ दीक्षा ग्रहण करेगा, उसे कृष्ण वासुदेव अनुज्ञा देते हैं और पीछे रहे हुए उनके मित्र, ज्ञाति, निजक, संबंधी या परिवार में कोई भी दुःखी होगा तो उसके वर्तमान काल संबंधी योग (अप्राप्त पदार्थ की प्राप्ति) और क्षेम (प्राप्त पदार्थ के रक्षण) का निर्वाह करेंगे अर्थात् सर्व प्रकार से उसका पालन, पोषण, संरक्षण करेंगे। इस प्रकार की घोषणा करो।' कौटुम्बिक पुरुषों ने इस प्रकार की घोषणा कर दी। २२-तए णं थावच्चापुत्तस्स अणुराएणं पुरिससहस्सं णिक्खमणाभिमुहं व्हायं सव्वालंकारविभूसियं पत्तेयं पत्तेयं पुरिससहस्सवाहिणीसु सिवियासु दुरूढं समाणं मित्तणाइपरिवूडं थावच्चापत्तस्स अंतियं पाउन्भूयं / तए णं से कण्हे वासुदेवे पुरिससहस्समंतियं पाउब्भवमाणं पासइ, पासित्ता कोड बियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासो-जहा मेहस्स निक्खमणाभिसेओ तहेव सेयापोएहि व्हावेइ / तए णं से थावच्चापुत्ते सहस्सपुरिसेहिं सद्धि सिवियाए दुरूढे समाणे जाव रवेणं बारवणार मझमज्झेणं [निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव रेवयगपन्वते जेणेव नंदणवणे उज्जाणे जेणेव सुरपियस्स जक्खस्स जक्खाययणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहओ अरिनेमिस्स छत्ताइछत्तं पडागाइपडागं विज्जाहरचारणे जंभए य देवे ओवयमाणे उप्पयमाणे पासइ, पासित्ता सिवियाओ पच्चोरहति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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