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________________ 160] [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् उस कौमुदी भेरी का ताड़न करने पर नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी द्वारका नगरी के शृगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, कंदरा, गुफा, विवर, कुहर, गिरिशिखर, नगर के गोपुर, प्रासाद, द्वार, भवन, देवकुल आदि समस्त स्थानों में, लाखों प्रतिध्वनियों से युक्त होकर, भीतर और बाहर के भागों सहित सम्पूर्ण द्वारका नगरी को शब्दायमान करता हुआ वह शब्द चारों ओर फैल गया। ११-तए णं बारवईए नयरीए नवजोयणवित्थिन्नए बारसजोयणायामाए समुद्दविजयपामोक्खा दस दसारा जाव' गणियासहस्साई कोमुईयाए भेरीए सई सोच्चा णिसम्म हतुट्ठा जाव व्हाया आविद्धवग्धारियमल्लदामकलावा अहतवत्थचंदणोक्किन्नगायसरीरा अप्पेगइया हयगया एवं गयगया रह-सीया-संदमाणीगया, अप्पेगइया पायविहारचारेणं पुरिसवग्गुरापरिखित्ता कण्हस्स वासुदेवस्स अंतियं पाउन्भवित्था। तत्पश्चात् नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी द्वारका नगरी में समुद्रविजय आदि दस दशार [बलदेव आदि महावीर, उग्रसेन ग्रादि राजा, प्रद्युम्न आदि कुमार, शाम्ब ग्रादि योद्धा, वीरसेन महासेन आदि बलशाली यावत् अनेक हजार गणिकाएँ उस कौमुदी भेरी का शब्द सुनकर एवं हृदय में धारण करके हृष्ट-तुष्ट, प्रसन्न हुए / यावत् सबने स्नान किया / लम्बी लटकने वाली फूलमालाओं के समूह को धारण किया। कोरे नवीन वस्त्रों को धारण किया / शरीर पर चन्दन का लेप किया / कोई अश्व पर आरूढ हुए, इसी प्रकार कोई गज पर आरूढ हुए, कोई रथ पर कोई पालकी में और कोई म्याने में वैठे। कोई-कोई पैदल ही पुरुषों के समूह के साथ चले और कृष्ण वासुदेव के पास प्रकट हुए-पाए। १२-तए णं कण्हे वासुदेवे समुद्दविजयपामोक्खे दस दसारे जाव' अंतियं पाउन्भवमाणे पासइ / पासित्ता हट्ठ-तुट्ठ जाव कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-'खिण्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउरंगिण सेणं सज्जेह, विजयं च गंधहत्थि उवट्ठवेह / ' ते वि तह त्ति उवट्ठवेंति, जाव तए णं से कण्हे वासुदेवे व्हाए जाव सवालंकारविभूसिए विजयं गंधहत्थि दुरुढे समाणे सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं महया भड-चडकरवंदपरियाल-संपरिबुडे वारवतीए नयरीए मज्झंमज्झणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव रेवतगपचए जेणेव नंदणवणे उज्जाणे जेणेव सुरप्पियस्स जक्खस्स जक्खाययणं जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता अरहओ अरिट्रनेमिस्स छत्ताइछत्तं पडागाइपडागं विज्जाहर-चारणे जंभए य देवे ओवयमाणे उप्पयमाणे पासइ, पासित्ता विजयाओ गंधहत्थीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहिता अरहं अरिठ्ठनेमि पंचविहेणं अभग्गहेणं अभिगच्छइ [तंजहा सचित्ताणं दवाणं विउसरणयाए, अचित्ताणं दवाणं अविउसरणयाए, एगसाडिय-उत्तरासंगकरणेणं, चक्खुफासे अंजलिपग्गहेणं, मणसो एगत्तीकरणणं] जेणामेव अरिठ्नेमी तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहं अरिट्ठनेमि तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता अरहओ अरिट्ठनेमिस्स नच्चासन्ने नाइदूरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे पंजलिउडे अभिमुहे विनएणं पज्जुवासति। 1-2. पंचम अ. 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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