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________________ [ ज्ञाताधर्मकथा 152] संयत कूर्म ११-तए णं ते पावसियालया जेणेव से दोच्चए कुम्मए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तं कुम्मयं सव्वओ समंता उवर्तेति जाव' दंतेहिं अक्खुडंति जाव' करित्तए। तए णं ते पावसियालया दोच्चं पि तच्चं पि जावं नो संचाएंति तस्स कुम्मगस्स किंचि आबाहं वा पबाहं वा विबाहं वा जाव [उप्पाएत्तए छविच्छेयं वा करित्तए, ताहे संता तंता परितंता निम्विन्ना समाणा जामेव दिसि पाउन्भूआ तामेव दिसि पडिगया। तत्पश्चात् वे पापी सियार जहाँ दूसरा कछुपा था, वहाँ पहुँचे / पहुँच कर उस कछुए को चारों तरफ से, सब दिशाओं से उलट-पलट कर देखने लगे, यावत् दांतों से तोड़ने लगे, परन्तु उसकी चमड़ी का छेदन करने में समर्थ न हो सके। / तत्पश्चात् वे पापी सियार दूसरी बार और तीसरी बार दूर चले गये किन्तु कछुए ने अपने अंग बाहर न निकाले, अतः वे उस कछुए को कुछ भी आबाधा या विबाधा अर्थात् थोड़ी या बहुत या अत्यधिक पीडा उत्पन्न न कर सके / यावत् उसकी चमड़ी छेदने में भी समर्थ न हो सके / तब वे श्रान्त, क्लान्त और परितान्त हो कर तथा खिन्न होकर जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में लौट गए। १२-तए णं से कुम्मए ते पावसियालए चिरंगए दूरगए जाणित्ता सणियं सणियं गीवं नेणेइ, नेणित्ता दिसावलोयं करेइ, करिता जमगसमगं चत्तारि वि पाए नीणेइ, नीणेत्ता ताए उक्किट्ठाए कुम्मगईए बीइवयमाणे वीइवयमाणे जेणेव मयंगतीरहहे तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छिता मित्त-नाइनियग-सयण-संबंधि-परियणेणं सद्धि अभिसमन्नागए यावि होत्या। तत्पश्चात् उस कछु ए ने उन पापी सियारों को चिरकाल से गया और दूर गया जान कर धीरे-धीरे अपनी ग्रीवा बाहर निकाली। ग्रीवा निकालकर सब दिशाओं में अवलोकन किया / अवलोकन करके एक साथ चारों पैर बाहर निकाले और उत्कृष्ट कूर्मगति से अर्थात् कछुए के योग्य अधिक से अधिक तेज चाल से दौड़ता-दौड़ता जहां मृतगंगातीर नामक ह्रद था, वहाँ जा पहुंचा। वहाँ आकर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, संबंधी और परिजनों से मिल गया। सारांश १३--एवामेव समणाउसो! जो अम्हं समणो वा समणी वा आयरिय-उवझायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पन्वइए समाणे पंच से इंदियाइं गुत्ताई भवंति, जाव [से गं इहभवे चेव बहूर्ण समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं साविगाण य अच्चणिज्जे वंदणिज्जे नमंसणिज्जे पूयणिज्जे सक्कारणिज्जे सम्माणिज्जे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएण पन्जुवासणिज्जे भवइ। परलोए वि य णं नो बहूणि हत्थछेयणाणि य कण्णच्छेयणाणि य नासाछेयणाणि य एवं हिययउप्पाडणाणि य वसणुप्पाडणाणि य उल्लंबणाणि य पाविहिइ, पुणो अणाइयं च णं अणवदग्गं दोहमद्धं चाउरतं संसारकतारं वीइवइस्सइ] जहा उ से कुम्मए गुत्तिदिए / 1-2. चतुर्थ प्र. 8. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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