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________________ 134] [ज्ञाताधर्मकथा सागरदत्त का पुत्र शकाशील था। उसने उस अंडे को ले जाकर अपने घर के पहले के अंडों के साथ रख दिया जिससे उसकी मयूरियाँ अपने अंडों के साथ उसका भी पोषण करती रहें। इससे प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में घरों में भी मोर पाले जाते थे। शंकाशीलता के कारण सागरदत्तपुत्र से रहा नहीं गया / वह उस अंडे के पास गया और विचार करने लगा—कौन जाने यह अंडा निपजेगा अथवा नहीं ? इस प्रकार शंका, कांक्षा और विचिकित्सा से ग्रस्त होकर उसने अंडे को उलट, पलट, उलटफेर कर कानों के पास ले गया, उसे बजाया। वारंवार ऐसा करने से अंडा निर्जीव हो गया / उसमें से वच्चा नहीं निकला। इसके विपरीत जिनदत्तपुत्र श्रद्धासम्पन्न था। उसने विश्वास रक्खा / वह अंडा मयूर-पालकों को सौंप दिया / यथासमय बच्चा हुमा / उसे नाचना सिखलाया गया। अनेक सुन्दर कलाएं सिखलाई गई / जिनदत्तपुत्र यह देखकर अत्यन्त हर्षित हुआ। नगर भर में उस मयूर-पोत की प्रसिद्धि हो गई / जिनदत्तपुत्र उसकी बदौलत हजारों-लाखों की बाजियाँ जीतने लगा। यह है अश्रद्धा और श्रद्धा का परिणाम / जो साधन श्रद्धावान रहकर साधना में प्रवृत होता है, उसे इस भव में मान-सन्मान की और परभव में मुक्ति की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत अथद्धालु साधक इस भव में निन्दा-गर्हा का तथा परभवों में अनेक प्रकार के संकटों, दुःखों, पीडायों और व्यथाओं का पात्र बनता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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