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________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट ] [ 109 बकरियां थी, बहुत धन, सोना एवं चांदी थी, उसके यहाँ खूब लेन-देन होता था] घर में बहुत-सा भोजन-पानी तैयार होता था / उस धन्य सार्थवाह की पत्नी का नाम भद्रा था। उसके हाथ पैर सुकुमार थे / पाँचों इन्द्रियाँ हीनता से रहित परिपूर्ण थीं ! वह स्वस्तिक आदि लक्षणों तथा तिल मसा आदि व्यंजनों के गुणों से युक्त थी। मान, उन्मान और प्रमाण से परिपूर्ण थी। अच्छी तरह उत्पन्न हुए–सुन्दर सब अवयवों के कारण वह सून्दरांगी थी। उसका आकार चन्द्रमा के समान सौम्य था। वह अपने पति के लिए मनोहर थी। देखने में प्रिय लगती थी। सुरूपवती थी। मुट्ठी में समा जाने वाला उसका मध्य भाग (कटिप्रदेश) त्रिवलि से सुशोभित था / कुडलों से उसके गंडस्थलों की रेखा घिसती रहती थी। उसका मुख पूर्णिमा के चन्द्र के समान सौम्य था / वह शृंगार का आगार थी / उसका वेष सुन्दर था / यावत् [उसकी चाल, उसका हँसना तथा बोलना सुसंगत था--मर्यादानुसार था, उसका विलास, बालाप-संलाप, उपचार-सभी कुछ संस्कारिता के अनुरूप था / उसे देखकर प्रसन्नता होती थी। वह वस्तुत: दर्शनीय थी, सुन्दर थी] वह प्रतिरूप थी उसका रूप प्रत्येक दर्शक को नया-नया ही दिखाई देता था / मगर वह वन्ध्या थी, प्रसव करने के स्वभाव से रहित थी। जानु (घुटनों) और कूपर (कोहनी) की ही माता थी, अर्थात् सन्तान न होने से जानु और कूपर ही उसके स्तनों का स्पर्श करते थे या उसकी गोद में जानु और कूर्पर ही स्थित होते थे-पुत्र नहीं। ७-तस्स णं धण्णस्स सत्यवाहस्स पंथए नाम दासचेडे होत्था, सव्वंगसुदरंगे मंसोवचिए बालकोलावणकुसले यावि होत्या। उस धन्य सार्थवाह का पंथक नामक एक दास-चेटक था / वह सर्वांग-सुन्दर था, मांस से पुष्ट था और बालकों को खेलाने में कुशल था। ८-तए णं से धण्णे सत्थवाहे रायगिहे नयरे बहूर्ण नगरनिगमसेट्ठिसत्यवाहाणं अट्ठारसण्ह य सेणिप्पसेणीणं बहुसु कज्जेसु य कुडुबेसु य मंतेसु य जाव' चक्खुभूए यावि होत्था। नियगस्स वि य गं कुडुबस्स बहुसु य कज्जेसु जाव चक्खुभूए यादि होत्था। वह धन्य सार्थवाह राजगृह नगर में बहुत से नगर के व्यापारियों, श्रेष्ठियों और सार्थवाहों के तथा अठारहों श्रेणियों (जातियों) और प्रश्रेणियों (उपजातियों) के बहुत से कार्यों में, कुटुम्बों में-.. कुटुम्ब सम्बन्धी विषयों में और मंत्रणाओं में यावत् चक्षु के समान मार्गदर्शक था और अपने कुटुम्ब में भी बहुत से कार्यों में यावत् चक्ष के समान था। 9 तत्थ णं रायगिहे नगरे विजए नाम तक्करे होत्था, पावे चंडालरूवे भीमतररुद्दकम्मे आरुसिय-दित्त-रत्त-नयणे खर-फरुस-महल्ल-विगय-वीभत्थदाढिए असंपुडियउठे उद्धय-पइन्न-लंबंतमुद्धए भ मर-राहवन्ने निरणुक्कोसे निरणतावे दारुण पइभए निसंसइए निरणकंपे अहिन्द एगंतदिट्रिए, खुरे व एगंतधाराए, गिद्धव आमिसतल्लिच्छे अग्गिमिव सव्वभक्खी, जलमिव सव्वगाही, उक्कंचणमाया-नियडि-कूडकवड-साइ-संपओगबहुले, चिरनगरविणट्ठ-दुट्ठसीलायारचरित्ते, जूयपसंगो, मज्ज 1. प्र. अ. सूत्र 15. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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