SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बीरां अज्झराण : संघाडे श्री जम्बू को जिज्ञासा १-जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं पढमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते, बिइयस्स णं भंते ! नायज्झयणस्स के अढे पन्नत्ते ? श्री जम्बू स्वामी, श्री सुधर्मा स्वामी से प्रश्न करते हैं—'भगवन् ! यदि श्रमण भगवान् महावीर से प्रथम ज्ञाताध्ययन का यह (आपके द्वारा प्रतिपादित पूर्वोक्त) अर्थ कहा है, तो भगवन् ! द्वितीय ज्ञाताध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? श्री सुधर्मा द्वारा समाधान 2-- एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णाम नयरे होत्था, वन्नओ।' तत्थ णं रायगिहे णयरे सेणिए राया होत्था महया० वण्णओ। तस्स णं रायगिहस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए गुणसिलए नाम चेइए होत्था, वन्नओ। श्री सुधर्मा स्वामी, जम्बू स्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए, द्वितीय अध्ययन के अर्थ की भूमिका प्रतिपादित करते हैं -हे जम्बू ! उस काल-चौथे आरे के अन्त में और उस समय में जब भगवान् इस भूमि पर विचरते थे, राजगह नामक नगर था। उसका वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार कह लेना चाहिए / उस राजगृह नगर में श्रेणिक राजा था। वह महान् हिमवन्त पर्वत के समान था, इत्यादि वर्णन भी औपपातिक सूत्र से समझ लेना चाहिए। उस राजगृह नगर से बाहर उत्तरपूर्व दिशा में- ईशान कोण में-गुणशील नामक चैत्य था / उसका वर्णन भी औपपातिक सूत्र के अनुसार ही कह लेना चाहिए। ३–तस्स गं गुणसिलयस्स चेइयस्स अदूरसामंते एत्य णं महं एगे पडिय-जिण्णुज्जाणे यावि होत्था, विणट्ठदेवकुले परिसाडियतोरणघरे नाणाविहगुच्छ-गुम्म-लया-वल्लि-वच्छ-च्छाइए अणेगवालसयसंकणिज्जे यावि होत्था / उस गुणशील चैत्य से न बहुत दूर न अधिक समीप, एक भाग में गिरा हुआ जीर्ण उद्यान था। उस उद्यान का देवकुल विनष्ट हो चुका था। उस के द्वारों आदि के तोरण और दूसरे गह भग्न हो गये थे / नाना प्रकार के गुच्छों, गुल्मों (बांस आदि की झाड़ियों), अशोक आदि की लताओं, ककड़ी आदि की बेलों तथा अाम्र आदि के वृक्षों से वह उद्यान व्याप्त था। सैकड़ों सों आदि के कारण वह भय उत्पन्न करता था--भयंकर जान पड़ता था। ४--तस्स गं जिन्नुज्जाणस्य बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे भग्गवए यावि होत्था। उस जीर्ण उद्यान के बहुमध्यदेश भाग में बीचों-बीच एक टूटा-फूटा बड़ा कूप भी था / 1. औपपातिकसूत्र, 3. 2. प्रोप० सूत्र 6. 3. श्रीप० 2. ---- - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy