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________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट [105 कैसे मिलता ! रोता-रोता पंथक घर गया / धन्य सार्थवाह ने भी खोज को किन्तु जब बालक का कुछ भी पता न लगा तब वह नगर-रक्षकों ( पुलिस-दल ) के पास पहुँचा। नगर-रक्षक खोजतेखोजते वहीं जा पहुँचे जहाँ वह अन्धकूप था जिसमें बालक का शव पड़ा था। शव को देखकर सब के मुख से अचानक 'हाय-हाय' शब्द निकल पड़ा। पैरों के निशान देखते-देखते नगर-रक्षक आगे बढ़े तो विजय चोर पास के सघन झाड़ियों वाले प्रदेश में (मालूकाकच्छ में) छिपा मिला गया। पकड़ा, खुब मार मारी, नगर में घुमाया और कारागार में डाल दिया। कुछ समय के पश्चात् किसी के चुगली खाने पर एक साधारण अपराध पर धन्य सार्थवाह को भी उसी कारागार में बन्द किया गया। विजय चोर और धन्य सार्थवाह-दोनों को एक साथ बेडी में डाल दिया। सार्थवाहपत्नी भद्रा ने धन्य के लिये विविध प्रकार का भोजन-पान कारागार में भेजा। धन्य सार्थवाह जब उसका उपभोग करने बैठा तो विजय चोर ने उसका कुछ भाग मांगा / किन्तु धन्य अपने पुत्रघातक शत्रु को आहार-पानी कैसे खिला-पिला सकता था? उसने देने से इन्कार कर दिया। कुछ समय पश्चात् धन्य सार्थवाह को मल-मूत्र विसर्जन की बाधा उत्पन्न हुई। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, विजय चोर और धन्य एक साथ बेड़ी में जकड़े थे। एक के विना दूसरा चलफिर नहीं सकता था। मल-मत्र विसर्जन के लिए दोनों का साथ जाना अनिवार्य था / जब सार्थवाह ने विजय चोर से साथ चलने को कहा तो वह अकड़ गया। बोला-तुमने भोजन किया है, तुम्ही जायो / मैं भूखा-प्यासा मर रहा हूँ, मुझे बाधा नहीं है / मैं नहीं जाता। धन्य विवश हो गया / थोड़े समय तक उसने बाधा रोकी, पर कब तक रोकता ? अन्ततः अनिच्छापूर्वक भी उसे विजय चोर को आहार-पानी में से कुछ भाग देने का वचन देना पड़ा / अन्य कोई मार्ग नहीं था / जब दूसरी बार भोजन आया तो धन्य ने उसका कुछ भाग विजय चोर को दिया। दास चेटक पंथक आहार लेकर कारागार जाता था / उसे यह देखकर दुःख हुआ / घर जाकर उसने भद्रा सार्थवाही को यह घटना सुनाई। कहा---'सार्थवाह आपके भेजे भोजन-पान का हिस्सा विजय चोर को देते हैं।' यह जान कर भद्रा के क्रोध का पार न रहा / पुत्र की क्रूरतापूर्वक पापी चोर को भोजन-पान देकर उसका पालन-पोषण करना / माता का हृदय घोर वेदना से व्याप्त हो गया। प्रतिदिन यही क्रम चलने लगा। कुछ काल के पश्चात् धन्य सार्थवाह को कारागार से मुक्ति मिली। जब वह घर पहुँचा तो सभी ने उसका स्वागत-सत्कार किया किन्तु उसकी पत्नी भद्रा ने बात भी नहीं की। वह पीठ फेर कर उदास, खिन्न बैठी रही। यह देखकर सार्थवाह बोला-भद्रे, क्या तुम्हें मेरी कारागार से मुक्ति अच्छी नहीं लगी? क्या कारण है कि तुम विमुख होकर अपनी अप्रसन्नता प्रकट कर रही हो? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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