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________________ 80] [ ज्ञाताधर्मकथा सड़ने लगा-खराब हो गया। उनका कीचड़ कीड़ों से व्याप्त हो गया / उनके किनारों का पानी सूख गया / भृगारक पक्षी दीनता पूर्वक प्राक्रन्दन करने लगे / उत्तम वृक्षों पर स्थित काक अत्यन्त कठोर और अनिष्ट शब्द कांव-कांव करने लगे। उन वृक्षों के अग्रभाग अग्निकणों के कारण मूगे के समान लाल दिखाई देने लगे / पक्षियों के समूह प्यास से पीड़ित होकर पंख ढीले करके, जिह्वा एवं तालु को बाहर निकाल करके तथा मुह फाड़कर सांसें लेने लगे / ग्रीष्मकाल की उष्णता, सूर्य के ताप, अत्यन्त कठोर एवं प्रचंड वायु तथा सूखे घास के पत्तों और कचरे से युक्त बवंडर के कारण भाग-दौड़ करने वाले, मदोन्मत्त एवं घबराए सिंह आदि श्वापदों के कारण पर्वत आकुल-व्याकुल हो उठे / ऐसा प्रतीत होने लगा मानो उन पर्वतों पर मृगतृष्णा रूप पट्टबंध बंधा हो / त्रास को प्राप्त मृग, अन्य पशु और सरीसृप इधर-उधर तड़फने लगे। ___ इस भयानक अवसर पर, हे मेघ ! तुम्हारा अर्थात् तुम्हारे पूर्वभव के सुमेरुप्रभ नामक हाथी का मुख-विवर फट गया। जिह्वा का अग्रभग बाहर निकल पाया। बड़े-बड़े दोनों कान भय से स्तब्ध और व्याकुलता के कारण शब्द ग्रहण करने में तत्पर हुए। बड़ी और मोटी सूड सिकुड़ गई / उसने पूछ ऊँची करली / पीना (मड्डा) के समान विरस अर्राटे के शब्द-चीत्कार से वह आकाशतल को फोड़ता हुआ सा, सीत्कार करता हुग्रा, चहुँ अोर सर्वत्र बेलों के समूह को छेदता हुआ, त्रस्त और बहुसंख्यक सहस्रों वृक्षों को उखाड़ता हुअा, राज्य से भ्रष्ट हुए राजा के समान, वायु से डोलते हुए जहाज के समान और बवंडर (वगडूरे) के समान इधर-उधर भ्रमण करता हुआ एवं बार-बार लींड़ी त्यागता हुआ, बहत-से हाथियों (हथनियों, लोटकों, लोदिकायों, कलभों तथा कलभिकानों) के साथ दिशाओं और विदिशानों में इधर-उधर भागदौड़ करने लगा। १६८-तत्थ णं तुम मेहा ! जुन्ने जराजज्जरियदेहे आउरे झंझिए पिवासिए दुब्बले किलते नट्ठसुइए मूढदिसाए सयाओ जूहाओ विप्पहूणे वणदवजालापारद्धे उण्हेण य, तण्हाए य, छुहाए य परभाहए समाणे भीए तत्थे तसिए उद्विग्गे संजायभए सव्वओ समंता आधावमाणे परिधावमाणे एगं च णं महं सरं अप्पोदयं पंकबहुलं अतित्थेणं पाणियपाए उइन्नो। हे मेघ ! तुम वहाँ जीर्ण, जरा से जजरित देह वाले, व्याकुल, भूखे, प्यासे, दुबले, थके-मांदे, बहिरे तथा दिङ मूढ होकर अपने यूथ (झुड) से बिछुड़ गये। वन के दावानल की ज्वालाओं से गर्मी से, प्यास से और भख से पीडित होकर भय से घबडा गए, त्रस्त हए। तुम्हारा आनन्द-रस शुष्क हो गया। इस विपत्ति से कैसे छुटकारा पाऊँ, ऐसा विचार करके उद्विग्न हुए। तुम्हें पूरी तरह भय उत्पन्न हो गया / अतएव तुम इधर-उधर दौड़ने और खूब दौड़ने लगे / इसी समय अल्प जलवाला और कीचड़ की अधिकता वाला एक बड़ा सरोवर तुम्हें दिखाई दिया / उसमें पानी पीने के लिए बिना घाट के ही तुम उतर गये। १६९-तत्थ णं तुम मेहा ! तीरमइगए पाणियं असंपत्ते अंतरा चेव सेयंसि विसन्ने / तत्थ गं तुम मेहा ! पाणियं पाइस्सामि त्ति कटु हत्थं पसारेसि, से वि य ते हत्थे उदगं न पावेइ / तए णं तुम मेहा ! पुणरवि कार्य पच्चद्धरिस्सामि त्ति कटु बलियतरायं पंकसि खुत्ते। हे मेघ ! वहाँ तुम किनारे से तो दूर चले गये, परन्तु पानी तक न पहुँच पाये और बीच ही में कीचड़ में फंस गये। पराभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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