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________________ 78] [ ज्ञाताधर्मकथा धणुपट्ठागिइ-विसिट्ठपुळे अल्लोण-पमाणजुत्त-वट्टिया-पीवर-गत्तावरे अल्लोण-पमाणजुत्तपुच्छे पडिपुन्न-सुचारु-कुम्मचलणे पंडुर-सुविसुद्ध-निद्ध-णिरुवहय-विसतिनहे छइंते सुमेरुप्पभे नामं हत्थिराया होत्था। भगवान् बोले हे मेघ ! इससे पहले अतोत तीसरे भव में वैताढय पर्वत के पादमूल में (तलहटी में) तुम गजराज थे / वनचरों ने तुम्हारा नाम 'सुमेरुप्रभ' रक्खा था / उस सुमेरुप्रभ का वर्ण श्वेत था। संख के दल (चूर्ण) के समान उज्ज्वल, विमल, निर्मल, दही के थक्के के समान, गाय के दूध के फेन के समान (या गाय के दूध और समुद्र के फेन के समान) और चन्द्रमा के समान (या जलकण और चाँदी के समूह के समान) रूप था। वह सात हाथ ऊँचा और नौ हाथ लम्बा था। मध्यभाग दस हाथ के परिमाण वाला था / चार पैर, सूड, पूछ और जननेन्द्रिय. ... यह सात अंग प्रतिष्ठित अर्थात् भूमि को स्पर्श करते थे। सौम्य, प्रमाणोपेत अंगों वाला, सुन्दर रूप वाला, आगे से ऊँचा, ऊँचे मस्तक वाला, शुभ या सुखद आसन (स्कन्ध आदि) वाला था। उसका पिछला भाग वराह (शूकर) के समान नीचे झुका हुआ था। इसकी कूख बकरी की कूख जैसी थी और वह छिद्रहीन थी-उसमें गड़हा नहीं पड़ा था तथा लम्बी नहीं थी। वह लम्बे उदर वाला, लम्बे होठ वाला और लम्बी सूड वाला था। उसकी पीठ खींचे हुए धनुष के पृष्ठ जैसी आकृति वाली थी। उसके अन्य अवयव भलीभाँति मिले हुए, प्रमाणयुक्त, गोल एवं पुष्ट थे। पूछ चिपकी हुई तथा प्रमाणोपेत थी। पैर कछुए जैसे परिपूर्ण और मनोहर थे। बीसों नाखुन श्वेत, निर्मल, चिकने और निरुपहत थे / छह दाँत थे। १६५--तत्थ णं तुम मेहा ! बाहिं हत्थीहि य हस्थिणोहि य लोट्टएहि य लोट्टियाहि य कलभेहि य कलभियाहि य सद्धि संपरिवुड़े हथिसहस्सणायए देसए पागट्ठी पठ्ठवए जूहवई वंदपरिवड्ढए अन्नेसि च बहूणं एकल्लाणं हथिकलभाणं आहेबच्चं जाव पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणाईसर-सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे विहरसि / हे मेघ ! वहां तुम बहुत से हाथियों, हथनियों, लोट्टको (कुमार अवस्था वाले हाथियों), लोटिकाओं, कलभों (हाथी के बच्चों) और कलभिकाओं से परिवृत होकर एक हजार हाथियों के नायक, मार्गदर्शक, अगुवा, प्रस्थापक (काम में लगाने वाले), यूथपति और यूथ की वृद्धि करने वाले थे। इनके अतिरिक्त अन्य बहुत-से अकेले हाथी के बच्चों का आधिपत्य करते हुए, स्वामित्व, नेतृत्व करते हुए एवं उनका पालन-रक्षण करते हुए विचरण कर रहे थे। १६६-तए णं तुम मेहा ! णिच्चप्पमत्ते सई पललिए कंदप्परई मोहणसीले अवितण्हे कामभोगतिसिए बहहि हत्थीहि य जाव संपरिबुडे वेयगिरिपायमूले गिरीसु य, दरीसु य, कुहरेसु य, कंदरासु य, उज्झरेसु य, निज्झरेसु य, वियरएसु य, गड्डासु य, पल्ललेसु य, चिल्ललेसु य, कडएसु य, कडयपल्ललेसु य, तडीसु य, वियडीसु य, टंकेसु य, कूडेसु य, सिहरेसु य, पब्भारेसु य, मंचेसु य, मालेसु य, काणणेसु य, वणेसु य, वणसंडेसु य, वणराईसु य, नदीसु य, नदीकच्छेसु य, जूहेसु य, संगमेसु य, बावीसु य, पोक्खरिणोसु य, दीहियासु य, गुंजालियासु य, सरेसु य, सरपंतियासु य, सरसरपंतियासु य, वणयरेहि दिन्नवियारे बहूहि हत्थोहि य जाव सद्धि संपरिवुडे बहुविहतरुपल्लवपउरपाणियतणे निब्भए निरुव्विग्गे सुहंसुहेणं विहरसि। हे मेध ! तुम निरन्तर मस्त, सदा क्रीडापरायण, कंदर्प रति-क्रीडा करने में प्रीति वाले, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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