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________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात] जियमज्झे वसाहि, अजियं जिणेहि सत्तुपक्खं, जियं च पालेहि मित्तपयखं, जाव इंदो इव देवाणं, चमरो इव असुराणं, धरणो इव नागाणं, चंदो इव ताराणं, भरहो इव मणुयाणं रायगिहस्स नगरस्स अग्नेसि च बहूणं गामागरनगर जाव खेड-कब्बड-दोणमुह-मडंव-पट्टण-आसम-निगम-संवाह-संनिवेसाणं आहेवच्चं जाव पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगतं आणाईसरसेगावच्चं कारेमाणे पालेमाणे महयाय-नट्ट-गीत-वाइय-तंती-तल-ताल-तुडिय-घण-मुइंग-पडुप्पवाइयरवेणं विउलाई भोगभोगाइं भुजमाणे विहराहि' त्ति कटु जयजयसई पउंजंति / / तए णं से मेहे राया जाए महया जाव' विहरइ / 'हे नन्द ! तुम्हारी जय हो, जय हो / हे भद्र ! तुम्हारी जय हो, जय हो / हे जगन्नन्द (जगत् को आनन्द देने वाले) ! तुम्हारा भद्र (कल्याण) हो / तुम न जीते हुए को जीतो और जीते हुए का पालन करो। जितों-प्राचारवानों के मध्य में निवास करो / नहीं जीते हुए शत्रुपक्ष को जीतो। जीते हुए मित्रपक्ष का पालन करो / यावत् देवों में इन्द्र, असुरों में चमरेन्द्र, नागों में धरण ताराओं में चन्द्रमा एवं मनुष्यों में भरत चक्री की भांति राजगृह नगर का तथा दूसरे बहुतेरे ग्रामों, आकरों, नगरों यावत् खेट, कर्वट, द्रोणमुख, मडंब, पट्टन, आश्रम, निगम, संवाह और सन्निवेशों का आधिपत्य यावत् नेतृत्व आदि करते हुए विविध वाद्यों, गीत, नाटक आदि का उपयोग करते हुए विचरण करो।' इस प्रकार कहकर श्रेणिक राजा ने जय-जयकार किया। तत्पश्चात् मेघ राजा हो गया और पर्वतों में महाहिमवन्त की तरह शोभा पाने लगा। 136. तए णं तस्स मेहस्स रण्णो अम्मापियरो एवं वयासी—'भण जाया ! कि दलयामो ? किं पयच्छामो ? किं वा ते हियइच्छिए सामत्थे (मते) ? तत्पश्चात् माता-पिता ने राजा मेघ से इस प्रकार कहा---'हे पुत्र ! बतानो, तुम्हारे किस अनिष्ट को दूर करें अथवा तुम्हारे इष्ट-जनों को क्या दें ? तुम्हें क्या दें ? तुम्हारे चित्त में क्या चाहविचार है ? संयमोपकरण की मांग 137. तए णं से मेहे राया अम्मापियरं एवं क्यासी-'इच्छामि णं अम्मयाओ ! कुत्तियावणाओ रयहरणं पडिग्गहं च उवणेह, कासवयं च सद्दावेह / ' तब राजा मेघ ने माता-पिता से इस प्रकार कहा---'हे माता-पिता! मैं चाहता हूँ कि कुत्रिकापण (जिसमें सब जगह की सब वस्तुएं मिलती हैं, उस अलौकिक देवाधिष्ठित दुकान) से रजोहरण और पात्र मंगवा दीजिए और काश्यप-नापित को बुलवा दीजिए। 138. तए णं से सेगिए राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ / सदाबेत्ता एवं बयासो—'गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! सिरिघराओ तिन्नि सयसहस्साइं गहाय दोहिं सयसहस्सेहि कुत्तियावणाओ रयहरणं पडिग्गहगं च उवणेह, सयसहस्सेणं कासवयं सद्दावेह / ' तए णं ते कोडुबियपुरिसा सेणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठा सिरिघराओ तिन्नि 1. प्रोपपातिक सूत्र 14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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