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________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] उत्तेहि बत्तीसइबद्धएहि नाडएहि उवगिज्जमाणे उगिज्जमाणे उवलालिज्जमाणे उवलालिज्जमाण सद्द-फरिस-रस-रूव-गंध-विउले माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणे विहरति / तत्पश्चात् मेघकुमार श्रेष्ठ प्रासाद के ऊपर रहा हुअा, मानो मृदंगों के मुख फूट रहे हों, इस प्रकार उत्तम स्त्रियों द्वारा किये हुए, बत्तीसबद्ध नाटकों द्वारा गायन किया जाता हुअा तथा क्रीड़ा करता हुआ, मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध की विपुलता वाले मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोगता हुआ रहने लगा। भगवान का आगमन १०८-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुटिव चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणामेव रायगिहे नगरे गुणसिलए चेइए जाव' विहरति / उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर अनुक्रम से चलते हुए, एक गांव से दूसरे गांव जाते हुए, सुखे-सुखे विहार करते हुए, जहां राजगृह नगर था और जहां गुणशील नामक चैत्य था, यावत् [वहाँ पधारे / पधार कर यथोचित स्थान ग्रहण किया / ग्रहण करके] ठहरे / १०९-तए णं से रायगिहे नगरे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु महया बहुजणसद्देति वा (जणवूहे ति वा, जणबोले ति वा, जणकलकले ति वा, जणुम्मीति वा, जणुक्कलिया ति वा, जणसन्निवाए ति वा,) जाव' बहवे उग्गा भोगा जाव रायगिहस्स नगरस्स मज्झमझेणं एगदिसि एगाभिमुहा निग्गच्छति / इमं च णं मेहे कुमारे उप्पि पासायवरगए फुट्टमाहिं मुयंगमस्थएहिं जाव माणुस्सए कामभोगे भुजमाणे रायमगं च आलोएमाणे एवं च णं विहरति / / तत्पश्चात् राजगह नगर में शृगाटक-सिंघाड़े के आकार के मार्ग, तिराहे, चौराहे, चत्वर, चतुर्मुख, पथ, महापथ आदि में बहुत से लोगों का शोर होने लगा / यावत् [लोग इकट्ठे होने लगे, लोग अव्यक्त और व्यक्त वाणी में बातें करने लगे, भीड़ हो गई, लोग इधर-उधर से प्रा स्थान पर जमा होने लगे,] बहुतेरे उग्रकुल के, भोगकुल के तथा अन्य सभी लोग यावत् राजगृह नगर के मध्य भाग में होकर एक ही दिशा में, एक ही योर मुख करके निकलने लगे। उस समय मेघकुमार अपने प्रासाद पर था। मानों मृदंगों का मुख फूट रहा हो, इस प्रकार गायन किया जा रहा था / यावत् मनुष्य संबंधी कामभोग भोग रहा था और राजमार्ग का अवलोकन करता-करता विचर रहा था। मेघकुमार को जिज्ञासा ११०–तए णं से मेहे कुमारे ते बहवे उग्गे भोगे जाव' एगदिसाभिमुहे पासति पासित्ता कंचुइज्जपुरिसं सद्दावेति, सद्दावित्ता एवं वयासी-कि भो देवाणुप्पिया! अज्ज रायगिहे नगरे इंदमहेति वा, खंदमहेति वा, एवं रुद्द-सिव-वेसमण-नाग-जक्ख-भूय-नई-तलाय-रुक्ख-चेतिय-पव्वय-उज्जाण-गिरिज. ताइवा? जओ णं बहवे उग्गा भोगा जाव' एगदिसि एगाभिमुहा णिग्गच्छंति ?' तब वह मेधकुमार उन बहुतेरे उग्रकुलीन भोगकुलीन यावत् सब लोगों को एक ही दिशा में 1. प्र. अ. सूत्र 4 2-3-4-5. प्रौप. सूत्र 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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