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________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात [43 गब्भस्स अणुकंपणट्टाए जयं चिट्ठति, जयं आसयति, जयं सुवति, आहारं पि य णं आहारेमाणी माइतित्तं णातिकडुयं णातिकसायं णातिअंबिलं णातिमहुरं जं तस्स गब्भस्स हियं मियं पत्थयं देसे य काले य आहारं आहारेमाणी णाचितं, णाइसोगं, णाइदेण्णं, णाइमोहं, गाइभयं, गाइपरितासं, बवगचिता-सोय-मोह-भय-परित्तासा उदु-भज्जमाण-मुहेहि भोयण-च्छायण-गंध-मल्लालंकारेहिं तं गन्भं सुहंसुहेणं परिवहति / तत्पश्चात् धारिणी देवी ने अपने उस अकाल दोहद के पूर्ण होने पर दोहद को सम्मानित किया। वह उस गर्भ की अनुकम्पा के लिए, गर्भ को बाधा न पहुँचे इस प्रकार यतना-सावधानी से खड़ी होती, यतना से बैठती और यतना से शयन करती। आहार करती तो ऐसा आहार करती जो अधिक तीखा न हो, अधिक कटुक न हो, अधिक कसैला न हो, अधिक खट्टा न हो और अधिक मोठा भी न हो। देश और काल के अनुसार जो उस गर्भ के लिए हितकारक (बुद्धि-पायुष्य आदि का कारण) हो, मित (परिमित एवं इन्द्रियों के अनुकूल) हो, पथ्य (ग्रारोग्यकारक) हो। वह अति चिन्ता न करती, अति शोक न करतो, अति दैन्य न करतो, अति मोह न करती, अति भय न करती और अति त्रास न करती / अर्थात चिन्ता, शोक, दैन्य, मोह, भय और त्रास से रहित होकर सब ऋतुओं में सुखप्रद भोजन, वस्त्र, गंध, माला और अलंकार आदि से सुखपूर्वक उस गर्भ को वहन करने लगी। मेघकुमार का जन्म ८७–तए णं सा धारिणो देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाण राइंदियाणं विइक्कताणं अद्धरत्तकालसमयंसि सुकुमालपाणिपायं जाव' सव्वंगसुदरंगं दारयं पयाया / तत्पश्चात् धारिणी देवी ने नौ मास परिपूर्ण होने पर और साढ़े सात रात्रि-दिवस बीत जाने पर, अर्धरात्रि के समय, अत्यन्त कोमल हाथ-पैर वाले यावत् परिपूर्ण इन्द्रियों से युक्त शरीर वाले, लक्षणों और व्यंजनों से सम्पन्न, मान-उन्मान-प्रमाण से युक्त एवं सर्वांगसुन्दर शिशु का प्रसव किया। ८५-तए णं ताओ अंगपडियारियाओ धारिणि देवि नवण्ह मासाणं जाव' दारयं पयायं पासंति / पासित्ता सिग्धं तुरियं चवलं वेइयं, जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सेणियं रायं जएणं विजएणं वद्धाति / वद्वावित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट एवं वयासी तत्पश्चात दासियों ने देखा कि धारिणी देवी ने नौ मास पूर्ण हो जाने पर यावत् पुत्र को जन्म दिया है। देख कर हर्ष के कारण शीघ्र, मन से त्वरा वाली, काय से चपल एवं वेग वाली वे दासियाँ श्रेणिक राजा के पास आती हैं। प्राकर श्रेणिक राजा को जय-विजय शब्द कह कर बधाई देती हैं। बधाई देकर, दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक पर पावर्तन करके, अंजलि करके इस प्रकार कहती हैं ८९-एवं खल देवाणुप्पिया ! धारिणी देवी णवण्हं मासाणं जाव' दारगं पयाया। तं गं अम्हे देवाणुप्पियाणं पियं णिवेएमो, पियं भे भवउ / 1. सूत्र 15 2. सूत्र 87 3. सूत्र 87 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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