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________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] अयमेयारूवं डोहलं विणेमोति' कट्ट अभयस्स कुमारस्स अंतियायो पडिणिक्खमति, पडिणिक्खमित्ता उत्तरपुरच्छिमे णं वेभारपन्चए वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहण्णति, समोहण्णइत्ता संखेज्जाई जोयणाई दंडं निसिरति, जाव दोच्चं पि वेउब्बियसमुग्धाएणं समोहण्णति, समोहणित्ता खिम्मामेव सगज्जियं सविज्जयं सफुसियं तं पंचवण्णमेहणिणाओवसोहियं दिव्वं पाउससिरि विउवेइ / विउव्वेइत्ता जेणेव अभए कुमारे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अभयं कुमारं एवं वयासी तत्पश्चात् वह देव अभयकुमार के ऐसा कहने पर हर्षित और संतुष्ट होकर अभय कुमार से बोला--देवानुप्रिय ! तुम निश्चिन्त रहो और विश्वास रक्खो। मैं तुम्हारी लघु माता धारिणी देवी के इस प्रकार के इस दोहद की पूर्ति किए देता हूँ। ऐसा कहकर अभय कुमार के पास से निकलता है। निकलकर उत्तरपूर्व दिशा में, वैभारगिरि पर जाकर वैक्रियसमुद्घात करता है। समुद्धात करके संख्यात योजन प्रमाण वाला दंड निकालता है, यावत् दूसरी बार भी वैक्रियसमुद्घात करता है और गर्जना से युक्त, बिजली से युक्त और जल-बिन्दुओं से युक्त पाँच वर्ण वाले मेघों की ध्वनि से शोभित दिव्य वर्षा ऋतु की शोभा की विक्रिया करता है / विक्रिया करके जहाँ अभयकुमार था, वहाँ आता है / प्राकर अभयकुमार से इस प्रकार कहता है ७४–एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए तव पियट्टयाए सज्जिया सफुसिया सविज्जया दिव्वा पाउससिरी विउविया / तं विणेउ णं देवाणुप्पिया ! तव चुल्लमाउया धारिणी देवी अयमेयास्वं अकालडोहलं / देवानुप्रिय ! मैंने तुम्हारे प्रिय के लिए प्रसन्नता की खातिर गर्जनायुक्त, बिन्दुयुक्त और विद्युत्युक्त दिव्य वर्षा-लक्ष्मी की विक्रिया की है। अतः हे देवानुप्रिय ! तुम्हारी छोटी माता धारिणी देवी अपने दोहद की पूर्ति करे। दोहपूति ७५-तए णं से अभयकुमारे तस्स पुव्वसंगतियस्स देवस्स सोहम्मकप्पवासिस्स अंतिए एयम सोच्चा णिसम्म हट्टतुट्ठ सयाओ भवणाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमिता जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता करयल० अंजलि कटु एवं वयासी तत्पश्चात् अभयकुमार उस सौधर्मकल्पवासी पूर्व के मित्र देव से यह बात सुन-समझ कर हर्षित एवं संतुष्ट होकर अपने भवन से बाहर निकलता है / निकलकर जहाँ श्रेणिक राजा बैठा था, वहां पाता है / पाकर मस्तक पर दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार कहता है--- ७६---‘एवं खलु ताओ ! मम पुब्वसंगतिएणं सोहम्मकप्पवासिणा देवेणं खिप्पामेव सगज्जिया सविज्जुया (सफुसिया) पंचवन्नमेहनिनाओवसोहिआ दिव्वा पाउससिरी विउव्विया। तं विणेउ णं मम चुल्लमाउया धारिणी देवी अकालदोहलं / ' हे तात ! मेरे पूर्वभव के मित्र सौधर्मकल्पवासी देव ने शीघ्र ही गर्जनायुक्त, बिजली से युक्त और (दों सहित) पाँच रंगों के मेघों की ध्वनि से सुशोभित दिव्य वर्षाऋतु की शोभा की विक्रिया की है / अतः मेरी लघु माता धारिणी देवी अपने अकाल-दोहद को पूर्ण करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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