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________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] करने के लिये जाने का विचार करता है-रवाना होता है। ५९-तए णं से अभयकुमारे जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता सेणियं रायं ओहयमणसंकप्पं जाव शियायमाणं पासइ / पासइत्ता अयमेयारूवे अज्झथिए चितिए (पत्थिए) मणोगते संकप्पे समुप्पज्जित्था। / तत्पश्चात् अभयकुमार श्रेणिक राजा के समीप आता है। आकर श्रेणिक राजा को देखता है कि इनके मन के संकल्प को आघात पहुँचा है / यह देखकर अभयकुमार के मन में इस प्रकार का यह आध्यात्मिक अर्थात् आत्मा संबंधी, चिन्तित, प्रार्थित (प्राप्त करने को इष्ट) और मनोगत-मन में रहा हुअा संकल्प उत्पन्न होता है ६०–अन्नया य ममं सेणिए राया एज्जमाणं पासति, पासइत्ता आढाति, परिजाणाति, सक्कारेइ, सम्माणेइ, आलवति, संलवति, अद्धासणेणं उवणिमंतेति मत्थयंसि अग्घाति, इयाणि ममं सेणिए राया णो आढाति, गो परियाणाइ, णो सक्कारेइ, णो सम्माणेइ, गो इटाहिं कंताहि पियाहि मणुन्नाहि ओरालाहि वम्यूहि आलवति, संलवति, नो अद्धासणेणं उवणिमंतेति, णो मत्थयंसि अग्धाति य, कि पि ओहयमणसंकप्पे झियायति / तं भवियव्वं एत्थ कारणेणं / तं सेयं खलु मे सेणियं रायं एयमट्ठ पुच्छित्तए / एवं संपेहेइ, संपेहित्ता जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु जएणं विजएणं बद्धावेइ, वद्धावइत्ता एवं वयासी 'अन्य समय श्रेणिक राजा मुझे आता देखते थे तो देखकर आदर करते, जानते, वस्त्रादि से सत्कार करते, प्रासनादि देकर सम्मान करते तथा पालाप-संलाप करते थे, प्राधे आसन पर बैठने के लिए निमंत्रण करते और मेरे मस्तक को सूघते थे। किन्तु आज श्रेणिक राजा मुझे न आदर दे रहे हैं, न पाया जान रहे हैं, न सत्कार करते हैं, न इष्ट कान्त प्रिय मनोज्ञ और उदार वचनों से आलापसंलाप करते हैं, न अर्ध आसन पर बैठने के लिए निमंत्रित करते हैं और न मस्तक को सूघते हैं। उनके मन के संकल्प को कुछ आघात पहुँचा है, अतएव चिन्तित हो रहे हैं। इसका कोई कारण होना चाहिए। मुझे श्रेणिक राजा से यह बात पूछना श्रेय (योग्य) है।' अभयकुमार इस प्रकार विचार करता है और विचार कर जहाँ श्रेणिक राजा थे, वहीं आता है। आकर दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक पर आवर्त करके, अंजलि करके जय-विजय से वधाता है / वधाकर इस प्रकार कहता है-- ६१-तुम्भे णं ताओ ! अन्नया ममं एज्जमाणं पासित्ता आढाह, परिजाणह जाव मत्थयंसि अग्धायह, आसणेणं उणिमंतेह, इयाणि ताओ! तुम्भे ममं नो आढाह जाव नो आसणेणं उवणिमंतेह / कि पि ओहयमणसंकष्पा जाव झियायह / तं भवियव्वं ताओ! एत्थ कारणेणं / तओ तुम्भे मम ताओ! एयं कारणं अगृहेमाणा असंकेमाणा अनिण्हवेमाणा अपच्छाएमाणा जहाभूतमवितहमसंदिद्धं एयमट्ठमाइक्खह / तए णं हं तस्स कारणस्स अंतगमणं गमिस्सामि / हे तात ! आप अन्य समय मुझे प्राता देखकर आदर करते, जानते, यावत् मेरे मस्तक को सूघते थे और ग्रासन पर बैठने के लिए निमंत्रित करते थे, किन्तु तात ! आज आप मुझे आदर नहीं दे रहे हैं, यावत् आसन पर बैठने के लिए निमंत्रित नहीं कर रहे हैं और मन का संकल्प नष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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