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________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात | ५१-तए णं से सेणिए राया तासि अंगपडियारियाणं अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म तहेव संभंते समाणे सिग्घं तुरिअं चवलं वेइयं जेणेब धारिणी देवी तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता धारिणि देवि ओलुग्गं ओलुग्गसरीरं जाव अट्टज्झाणोवगयं झियायमाणि पासइ / पासित्ता एवं बयासी-कि णं तुमे देवाणुप्पिए ! ओलुग्गा ओलुग्गसरोरा जाव अट्टज्झाणोवगया झियायसि ?" ___ तब श्रेणिक राजा उन अंगपरिचारिकाओं से यह सुनकर, मन में धारण करके, उसी प्रकार व्याकुल होता हुआ, त्वरा के साथ एवं अत्यन्त शीघ्रता से जहाँ धारणी देवी थी, वहाँ आता है। ग्राकर धारिणी देवी को जीर्ण-जैसी, जीर्ण शरीर बाली यावत् प्रातध्यान से युक्त-चिन्ता करती देखता है / देखकर इस प्रकार कहता है--'देवानुप्रिये ! तुम जीर्ण जैसी, जीर्ण शरीर वाली यावत् प्रार्तध्यान से युक्त होकर क्यों चिन्ता कर रही हो?' ___५२.-तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणी नो आढाइ, जाव तुसिणीया संचिट्ठति। ___ धारिणी देवी श्रेणिक राजा के इस प्रकार कहने पर भी आदर नहीं करती-उत्तर नहीं देती, यावत् मौन रहती है। ५३-तए णं से सेणिए राया धारिणि देवि दोच्चं पि तच्चं पि एवं वदासी-'कि णं तुमे देवाणुप्पिए ! ओलुग्गा जाव झियायसि ?' ___ तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने धारिणी देवी से दूसरी बार और फिर तीसरी बार भी इसी प्रकार कहा-देवानुप्रिये ! तुम जीर्ण-सी होकर यावत् चिन्तित क्यों हो? ५४---तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रण्णा दोच्चं पि तच्चं पि एवं वृत्ता समाणी गो आढाति, णो परिजाणाति, तुसिणीया संचिट्ठई। तत्पश्चात् धारिणी देवी श्रेणिक राजा के दूसरी बार और तीसरी बार भी इस प्रकार कहने पर आदर नहीं करती और नहीं जानती-मौन रहती है। ५५---तए णं सेणिए राया धारिणि देवि सवहसावियं करेइ, करित्ता एवं वयासी-कि णं तुमं देवाणुप्पिए ! अहमेयस्स अट्ठस्स अणरिहे सवणयाए ? ता गं तुमं ममं अयमेयारूवं मणोमाणसियं दुक्खं रहस्सीकरेसि?' तब श्रेणिक राजा धारिणी देवी को शपथ दिलाता है और शपथ दिलाकर कहता है'देवानुप्रिये ! क्या मैं तुम्हारे मन की बात सुनने के लिए अयोग्य हूँ, जिससे तुम अपने मन में रहे हुए मानसिक दुःख को छिपाती हो ?' दोहद-निवेदन ५६-तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रण्णा सवहसाविया समाणी सेणियं रायं एवं वदासी-- 'एवं खलु सामी ! मम तस्स उरालस्स जाव महासुमिणस्स तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अयमेयारूवे अकालमेहेसु दोहले पाउन्भूए–'धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयत्थाओ णं ताओ अम्मयाओ, जाव' वेभारगिरिपायमूलं आहिडमाणीओ डोहलं विणिन्ति। तं जइ णं अहमवि जाव 1. प्र.अ. सूत्र 44 Jain Education International, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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