________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१] [219 [32-3] जो अपर्याप्त बादर पृथ्वोकायिक-एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल हैं, वे भी इसी प्रकार समझने चाहिए। [4] एवं पज्जत्तगा वि। [32-4] पर्याप्तक बादरपृथ्वोकायिक-एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल भी इसी प्रकार स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत समझने चाहिए। [5] एवं चउक्कएणं भेदेणं जाव वणस्सइकाइया / [32-5] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक पर्यन्त-प्रत्येक के सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक और अपर्याप्तक इन चार-चार भेदों में स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल कहने चाहिए। 33. [1] जे अपज्जताबेइंदियपयोगपरिणया ते जिभिदिय-फासिदियपयोगपरिणया। [33.1] जो पुद्गल अपर्याप्तक द्वीन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे जिह्वन्द्रिय एवं स्पर्शेन्द्रिय प्रयोगपरि [2] जे पज्जत्ताबेइंदिया एवं चेव / _[33-2] इसी प्रकार पर्याप्तक-द्वीन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल भी जिह्वन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय प्रयोग परिणत हैं। [3] एवं जाव चरिदिया, नवरं एक्केवक इंदियं वड्ढेयव्यं / [33-3] इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय जीवों तक (पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों में) कहना चाहिए। किन्तु एक-एक इन्द्रिय बढ़ानी चाहिए (अर्थात्-त्रीन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गल स्पर्श-जिह्वाघ्राणेन्द्रिय-प्रयोगपरिणत हैं, और चतुरिन्द्रिय-प्रयोगपरिणत पुद्गल स्पर्श-जिह्वा-घ्राण-चक्षुरिन्द्रिय प्रयोगपरिणत हैं।) 34. [1] जे प्रपज्जत्तारयणप्पभापुढविनेरइयचिदियपयोगपरिणया ते सोइंदिय-क्खिदियघाणिदिय-जिम्मिदिय-फासिदियपयोगपरिणया। [34-1] जो पुद्गल अपर्याप्त रत्नप्रभा (ग्रादि) पृथ्वी नैरयिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे श्रोत्रेन्द्रिय-चक्षुरिन्द्रिय-घ्राणेन्द्रिय-जिह्वन्द्रिय-स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोगपरिणत हैं। [2] एवं पज्जत्तगा वि। [34-2] इसी प्रकार पर्याप्तक (रत्नप्रभादिपृथ्वी नैरयिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल के विषय में भी पूर्ववत् (पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत) कहना चाहिए / 35. एवं सन्वे भाणियबा तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवा, जे पज्जत्तासम्वट्ठसिद्धप्रणुत्तरोवाइय जाय परिणया ते सोइंदिय-चविखदिय जाव परिणया। दंडगा 4 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org