________________ सप्तम शतक : उद्देशक-६] [159 गोयमा ! भूमी मविस्सति इंगालभूता मुम्मुरभूता छारियभूता वल्लयभूया तत्तसमजोतिभूया धूलिबहुला रेणुबहुला पंकबहुला पणगबहुला चलणिबहुला, बहूणं धरणिगोयराणं सत्ताणं दुनिषकमा यावि भविस्सति / [32 प्र.] भगवन् ! उस समय भारतवर्ष की भूमि का आकार और भावों का आविर्भाव (स्वरूप) किस प्रकार का होगा? [32 उ.] गौतम ! उस समय इस भरतक्षेत्र की भूमि अंगारभूत (अंगारों के समान), मुर्मुरभूत (गोबर के उपलों की अग्नि के समान), भस्मीभूत (गर्म राख के समान), तपे हुए लोह के कड़ाह के समान, तप्तप्राय अग्नि के समान, बहुत धूल वाली, बहुत रज वाली, बहुत कीचड़ वाली, बहुत शैवाल (अथवा पांच रंग की काई) वाली, चलने जितने बहुत कीचड़ बाली होगी, जिस पर पृथ्वीस्थित जीवों का चलना बड़ा ही दुष्कर हो जाएगा। 33. तीसे णं भंते ! समाए भारहे वासे मणुयाणं करिसए प्रायारभाव-पडोयारे भविस्सति ? गोयमा ! मणुया मविस्सति दुरूवा दुवण्णा दुगंधा दूरसा दूफासा, अणिट्ठा अकंता जाव अमणामा, होणस्सरा दोणस्सरा अणिट्ठस्सरा जाव अमणामस्सरा, अणादिज्जवयण-पच्चायाता निल्लज्जा कूड-कवड-कलह-वह-बंध-बेर-निरया मज्जादातिक्कमप्पहाणा अकज्जनिच्चुज्जता गुरुनियोगविणयरहिता य विकलरूवा परूढनह-केस-मंसुरोमा काला खरफासभामवण्णा फुट्टसिरा कविलपलियकैसा बहण्हारसंपिणद्धबुद्द सणिज्जरूवा संकुडियवलीतरंगपरिवेढियंगमंगा जरापरिणत व्व थेरगनरा पविरलपरिसडियदंतसेढी उन्भउघडमुहा विसमनयणा वकनासा वकवलीविगतमेसणमुहा कच्छूकसराभिभूता खरतिक्खनक्खकंडूइय-विक्खयतणू दुइ-किडिभ-सिज्झफुडियफरूसच्छवी चित्तलंगा टोलगति-विसम-संधिबंधणउपकुडुअटिगविभत्तदुब्बलाकुसंधयणकुप्पमाणकुसंठिता कुरुवा कुद्वाणासणकुसेज्जकुभोइणो प्रसुइणो अणेगवाहिरिपोलियंगमंगा खलंतिविन्भलगती निरुच्छाहा सत्तपरिवज्जिया विगतचेटुनद्वतया अभिवखणं सीय-उण्ह-खर-फरुस-वातविज्झडियमलिणपंसुरउग्गुडितंगमंगा बहुकोह-माण-माया बहुलोमा असुहदुक्खमागी प्रोसन्न धम्मसण्णा-सम्मतपरिभट्ठा उक्कोसेणं रणिपमाणमेत्ता सोलसबीसतियासपरमाउसा पुत्त-णतुपरियालपणयबहुला गंगा-सिधूम्रो महानदीयो वेयड्डं च पन्चयं निस्साए बहुतरि णिगोदा बीयंबीयामेत्ता बिलवासिणो भविस्संति / [33 प्र.] भगवन् ! उस समय (दुःषमदुःषम नामक छठे आरे) में भारतवर्ष के मनुष्यों का आकार या प्राचार और भावों का आविर्भाव (स्वरूप) कैसा होगा? [33 उ.] गौतम ! उस समय में भारतवर्ष के मनुष्य अति कुरूप, कुवर्ण, कुगन्ध, कुरस और कुस्पर्श से युक्त, अनिष्ट, अकान्त (कान्तिहीन या अप्रिय) यावत् अमनोगम, हीनस्वर वाले, दीनस्वर वाले, अनिष्टस्वर वाले यावत् अमनाम स्वर वाले, अनादेय और अप्रतीतियुक्त वचन वाले, निर्लज्ज, कूट-कपट, कलह, वध (मारपीट), बन्ध, और वैरविरोध में रत, मर्यादा का उल्लंघन करने में प्रधान (प्रमुख), अकार्य करने में नित्य उद्यत, गुरुजनों (माता-पिता आदि पूज्यजनों) के आदेशपालन, और विनय से रहित, विकलरूप (बेडौल सुरत शक्ल) वाले; बढ़े हुए नख, केश, दाढ़ी, मूछ और रोम वाले, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org