________________ दसमो उद्दसओ : 'अन्नउत्थी' दशम उद्देशक : अन्यतीर्थी अन्यतीथिकमतनिराकरणपूर्वक सम्पूर्ण लोक में सर्व जीवों के सुखदुःख को अणुमात्र भी दिखाने की असमर्थता की प्ररूपरणा 1. [1] अन्नउत्थिया गंभंते ! एवमाइक्खंति जाव परुति-जावतिया रायगिहे नयरे जीवा एवतियाणं जीवाणं तो चक्किया केइ सुहं वा दुहं वा जाव कोलढिगमातमवि निष्कावमातमवि कलममायमवि मासमायमवि मुग्गमातमवि जूयामायमवि लिक्खामायमवि अभिनिवदृत्ता उवदंसित्तए, से कहमेयं माते ! एवं? मोयमा ! जंणं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति जाव मिच्छं ते एवमासु, अहं पुण गोतमा ! एबमाइक्खामि जाव परूवेमि सम्वलोए वि य णं सबजीवाणं णो चक्किया केइ सुहं वा तं चेव जाव उवदंसित्तए। [1-1 प्र.] भगवन् ! अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि राजगृह नगर में जितने जीव हैं, उन सबके दुःख या सुख को बेर की गुठली जितना भी, बाल (निष्पाव नामक धान्य) जितना भी, कलाय (गुवार के दाने या काली दाल अथवा मटर या चावल) जितना भी, उड़द के जितना भी, मूग-प्रमाण, यूका (जू) प्रमाण, लिक्षा (लोख) प्रमाण भी बाहर निकाल कर नहीं दिखा सकता / भगवन् ! यह बात यों कैसे हो सकती है ? [1-1 उ.] गौतम ! जो अन्यतीथिक उपर्युक्त प्रकार से कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं, वे मिथ्या कहते हैं / हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि (केवल राजगृह नगर में ही नहीं) सम्पूर्ण लोक में रहे हुए सर्व जीवों के सुख या दुःख को कोई भी पुरुष उपयुक्तरूप से यावत् किसी भी प्रमाण में बाहर निकाल कर नहीं दिखा सकता। [2] से केण?णं० ? गोधमा ! अयं णं जंबहीवे 2 जाव विसेसाहिए परिक्खेवेणं पन्नत्ते / देवे गं महिडोए जाव महाणुभागे एग महं सविलेवणं गंधसमुम्गगं गहाय तं वदालेति, तं अवदालित्ता जाव इणामेव कटु केवलकप्पं जंबुद्दीव 2 तिहिं अच्छरानिवातेहिं तिसत्तहुत्तो अणुपरियट्टित्ताणं हवमागच्छेज्जा, से नणं गोतमा ! से केवलकप्पे जंबुद्दोवे 2 तेहि धाणपोग्गलेहि फुडे ? हंता, फुडे। चक्किया णं गोतमा ! केइ तेसि धाणपोग्गलाणं कोलद्वियमायमवि जाव उवदं सित्तए ? णो इण? सम8 / से तेण?णं जाव उवदंसेत्तए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org