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________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 172. एवं मउय-गल्य-लहुया वि भाणियल्वा / [172] इसी प्रकार मृदु (कोमल), गुरु (भारी) एवं लघु (हलके) स्पर्श के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए। 173. सोय-उसिण-निद्ध-लुक्खा जहा वण्णा / [173) शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्शों की वक्तव्यता वर्णों के समान है। विवेचन-क्षेत्रापेक्षया पुद्गलचिन्तन-परमाणु कल्योजप्रदेशावगाढ ही होता है, क्योंकि वह एक होता है। द्विप्रदेशीस्कन्ध परिणाम विशेष के कारण कभी द्वापरयग्म-प्रदेशावगाढ होता है, कभी कल्योज-प्रदेशावगाढ होता है। इसी प्रकार अन्यत्र भी स्वयं चिन्तन कर लेना चाहिए / बहुत से परमाणु ओघतः (सामान्यापेक्षा) सकल लोकव्यापी होने के कारण कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ होते हैं। सकल लोक के प्रदेश असंख्यात हैं और वे अवस्थित हैं, इसलिए उनमें चतुरग्रता घटित होती हैं। विधानतः (एक-एक परमाणु की अपेक्षा) सभी परमाणु एक-एक प्राकाशप्रदेश में अवगाढ होने से कल्योज-प्रदेशावगाढ़ हैं। द्विप्रदेशावगाढ स्कन्ध सामान्यत: पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार चतुरन (कृतयुग्म) हैं। विधान (प्रत्येक) की अपेक्षा जो द्विप्रदेशावगाढ हैं, वे द्वापरयुग्म हैं और जो एक प्रदेशावगाढ हैं, वे कल्योज हैं / इस प्रकार अन्यत्र भी विचार कर लेना चाहिए।' स्पर्शविषयक प्रतिदेश का प्राशय-यहाँ कर्कशस्पर्श के अधिकार में अनन्तप्रदेशोस्कन्ध के विषय में ही कृतयग्मादि-सम्बन्धी प्रश्न किया गया है. इसका कारण यह है कि कि बादर-अनन्तप्रदेशी स्कन्ध हो कर्कश आदि चार स्पर्शों वाला होता है, परमाणु पुद्गल आदि नहीं। शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श के विषय में जो वर्णों का अतिदेश किया गया है, उसका कारण यह है कि परमाणु आदि भी शीत-स्पादि वाले होते हैं। इसीलिए मूलपाठ में कहा गया है--'सीय-उसिण-निद्ध-लुक्खा जहा वण्णा / ' परमाणु से लेकर अनन्तप्रदेशीस्कन्ध तक यथायोग्य सार्द्ध-अनद्ध प्ररूपरणा 174. परमाणुपोग्गले णं भते ! कि सड्ढे अणड्ढे ? गोयमा ! नो, सड्ढे अणड्ढे / [174 प्र.] भगवन् ! परमाणु-पुद्गल सार्द्ध (प्राधे भाग-सहित) है या अनर्द्ध (माधे भाग से रहित)? [174 उ.] गौतम ! वह सार्द्ध नहीं है, अनर्द्ध है / 175. दुपएसिए० पुच्छा० / गोयमा! सड्ढे, नो अणड्ढे / [175 प्र.] भगवन् ! द्विप्रदेशिक स्कन्ध सार्द्ध है या अनर्द्ध ? [175 उ.] गौतम ! वह सार्द्ध है, अनर्द्ध नहीं / 1. भगवती अ. वृत्ति, पत्र 883 2. वही, म. वृत्ति, पत्र 803 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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