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________________ 228 व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गमकों में परिमाण-जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं, ऐसा जानना। (संवेध-) नौ ही गमकों में भव की अपेक्षा से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव ग्रहण करते हैं। शेष पूर्ववत् / कालादेश से--दोनों पक्षों की स्थिति को जोड़ने से (काल) सवेध जानना चाहिए। 14. दि पाउकाइएहितो उवव० ? एवं प्राउकाइयाण वि। [14 प्र. भगवन् ! यदि वह (पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च) अप्कायिक जीवों से पाकर उत्पन्न हो तो? इत्यादि प्रश्न / [14 उ.] पूर्ववत् अप्काय के सम्बन्ध में कहना चाहिए / 15. एवं जाव चरिदिया उववाएयव्वा, नवरं सव्वत्थ अपणो लद्धी भाणियवा। नवसु वि गमएसु भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई / कालाएसेणं उभयो ठिति करेज्जा / सव्वेसि सव्वगमएसु जहेव पुढविकाइएसु उववज्जमाणाणं लद्धी तहेव / सम्वत्थ ठिति संवेहं च जाणेज्जा। [15] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय तक उपपात कहना चाहिए; परन्तु सर्वत्र अपनी-अपनी वक्तव्यता कहनी चाहिए / नौ ही गमकों में भव की अपेक्षा से-जघन्य दो भव, और उत्कृष्ट पाठ भव तथा कालादेश से दोनों की स्थिति को जोड़ना चाहिए। जिस प्रकार पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार सभी गमकों में सभी जीवों के सम्बन्ध में कहनी चाहिए। सर्वत्र स्थिति और संवेध यथायोग्य भिन्न-भिन्न जानना चाहिए। विवेचन कुछ स्पष्टीकरण : एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय-सम्बन्धी—(१) पृथ्वीकायिक जीव, यदि पृथ्वीकायिक में उत्पन्न हो तो प्रतिसमय असंख्यात उत्पन्न होते हैं, किन्तु यदि पृथ्वीकायिक, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में उत्पन्न हो तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं / (2) संवेध-भव की अपेक्षा से नौ ही गमकों में उत्कृष्ट आठ भव होते हैं। (3) अप्कायिक से लेकर चतुरिन्द्रिय तक से निकल कर पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च में उत्पन्न होने में परिमाणादि की वक्तव्यता सर्वत्र अपनी अपनी कहनी चाहिए। पंचेन्द्रिय-तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले असंजीपंचेन्द्रिय तियंचों के उत्पाद-परिमाणादि बीस द्वारों को प्ररूपरणा 16. जदि पंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति किं सन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति, असलिपंदियतिरिक्खजोणि ? गोयमा ! सन्निपंचेंदिय०, असन्निपंचेंदिय० / भेदो जहेव पुढविकाइएसु उववज्जमाणस्स जाव 1. भगवती अ. वृत्ति, पत्र 840 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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