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________________ 748] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सरिसव दो प्रकार के हैं, यथा-याचित (मांग कर लिये हुए) और अयाचित (बिना मांगे हुए) / अयाचित श्रमण निम्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं। याचित भी दो प्रकार के हैं, यथा--लब्ध (मिले हुए) और अलब्ध (नहीं मिले हुए) / अलब्ध श्रमण निन्थों के लिए अभक्ष्य हैं और जो लब्ध हैं, वह श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए भक्ष्य हैं। इस कारण से, हे सोमिल ! ऐसा कहा गया है कि---'सरिसव' मेरे लिए भक्ष्य भी हैं, और अभक्ष्य भी हैं / विवेचन-'सरिसव' किस दृष्टि से भक्ष्य हैं, किस दृष्टि से अभक्ष्य ? ---प्रस्तुत सू. 24 में सोमिल ब्राह्मण द्वारा छलपूर्वक उपहास करने की दृष्टि से भगवान् से पूछे गए 'सरिसव'-भक्ष्याभक्ष्यविषयक प्रश्न का विभिन्न पहलुओं से दिया गया उत्तर अंकित है। _ 'सरिसव' शब्द का विश्लेषण---'सरिसव' प्राकृतभाषा का श्लिष्ट शब्द है / संस्कृत में इसके दो रूप होते हैं--(१) सर्षप और (2) सदृशवया / सर्षप का अर्थ है--सरसों (धान्य) और सरिसवया का अर्थ है--समवयस्क--हमजोली मित्र, या सहजात, सहक्रीडित / ये तीनों प्रकार के मित्रसरिसव श्रमणनिम्रन्थ के लिए अभक्ष्य हैं। अब रहे सर्षपधान्य, वे भी प्रशस्त्रपरिणत, अनेषणीय, अयाचित और अलब्ध हों तो श्रमणनिर्ग्रन्थों के लिए अकल्पनीय-अग्राह्य (अग्राह्य) होने से अभक्ष्य हैं, किन्तु जो सर्षप एषणीय, (निर्दोष ), शस्त्रपरिणत, याचित और लब्ध हैं, वे श्रमणनिम्रन्थों के लिए भक्ष्य है। मास एवं कुलत्था के भक्ष्याभक्ष्यविषयक सोमिलप्रश्न का भगवान द्वारा समाधान ___25. [1] मासा ते भंते ! कि भक्खेया, अभयच्या? सोमिला! मासा मे भक्खेया वि, प्रभक्खेया वि। 25-1 प्र. भगवन् ! आपके मत में 'मास' भक्ष्य है या अभक्ष्य है ? [25-1 उ.] सोमिल ! 'मास' भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है। [2] से केण?णं जाव अभक्खेया वि ? से नूणं सोमिला ! बंभण्णएसु नएसु दुविहा मासा पन्नत्ता, तं जहा--दव्वमासा य कालमासा य / तस्थ गं जे ते कालमासा ते णं सावणादीया आसाढपज्जवसाणा दुवालस, तं जहा -सावणे मद्दवए आसोए कत्तिए मग्गसिरे पोसे माहे फागुणे चेत्ते वइसाहे जेट्ठामूले आसाढे / ते गं समणाणं निग्गंथाणं अमक्खेया / तत्थ णं जे ते दव्वमासा ते दुविहा पत्नत्ता, तं जहा–अत्थमासा य धण्णमासा य / तत्थ णं जे ते प्रत्थसासा ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-सुवण्णमासा य रुप्पमासा 4; ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। तत्य गं जे ते धन्नमासा से दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-सत्थपरिणया य असत्थपरिणया य / एवं जहा धन्नसरिसवा जाव से तेण?णं जाव अभक्खेया वि। [25-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं कि 'मास' भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी ? [25-2 उ.] सोमिल ! तुम्हारे ब्राह्मण-नयों (शास्त्रों) में 'मास' दो प्रकार के कहे गए हैं / 1. (क) भगवती, प्र. वृत्ति, पत्र 760 (ख) भगवती, विवेचन भा. 6, (पं. घेवरचन्दजी) पृ. 2761 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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