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________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 1] 30. एवं चक्खिदिय-धाणिदिय-जिभिदिय-फासिदियाणि वि, नवरं जाणियब्वं जस्स जं अस्थि / [30] इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वन्द्रिय और स्पर्शन्द्रिय के विषय में जानना चाहिए / विशेष-जिन जीवों के जितनी इन्द्रियाँ हों, उनके विषय में उसी प्रकार जानना चाहिए / 31. जोवे गं भते / मणजोगं निव्वत्तेमाणे कि अधिकरणी, अधिकरणं? एवं जहेव सोतिदियं तहेव निरवसेसं / (31 प्र.] भगवन् ! मनोयोग को वांधता हुमा जीव, अधिकरणी है या अधिकरण ? 431 उ.} जैसे श्रोत्रेन्द्रिय के विषय में कहा, वही सब मनोयोग के विषय में कहना चाहिए। 32. वइजोगो एवं चेव / नवरं एगिदियवज्जाणं / 132] वचनयोग के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिए / विशेष-वचनयोग में एकेन्द्रियों का कथन नहीं करना चाहिए। 33. एवं कायजोगो वि, नवरं सव्वजीवाणं जाव वेमाणिए / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // सोलसमे सए : पढमो उद्देसओ समत्तो // 16.1 // [33] इसी प्रकार काययोग के विषय में भी कहना चाहिए / विशेष यह है कि काययोग सभी जोवों के होता है / अत: यावत् वैमानिकों तक इसी प्रकार जानना चाहिए / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर श्रीगौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--प्रस्तुत सोलह सूत्रों (सू. 18 से 33) में पांच शरीरों, पांच इन्द्रियों और तीन योगों की अपेक्षा से सभी जीवों के अधिकरणी एवं अधिकरण होने की सहेतुक प्ररूपणा की गई है / पांच शरीरों की अपेक्षा से—देव और नैरयिक जीवों के औदारिक शरीर नहीं होता है इसलिए नै रयिकों और देवों को छोड़कर पृथ्वीकायिक प्रादि दण्डकों के विषय में ही अधिकरणी एवं अधिकरण से सम्बन्धित प्रश्न किया गया है / नरयिकों और देवों को जन्म से प्राप्त भव प्रत्यय वैक्रियशरीर होता है। जबकि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों और मनुष्यों में, जिन्हें वैक्रियशरीर बनाने की शक्ति प्राप्त हुई हो उन्हें लब्धिप्रत्यय वैक्रियशरीर होता है। वायुकाय को वैक्रियशक्ति प्राप्त होने से उसके भी वैक्रिय शरीर होता है / आहारकशरीर संयमी मुनियों के ही होता है, इसलिए मुख्य प्रश्न मनुष्य के विषय में ही करना चाहिए। संयत जीवों में अविरति का अभाव होने पर भी उनमें प्रमादरूप अधिक रण हो सकता है।' 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 699 . (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2516 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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