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________________ पन्द्रहवां शतक] [503 'छउमत्थे चेव कालगए' इमेणं एयारूवेणं महया मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूए समाणे आयावणभूमीओ पच्चोरुभति, प्राया०प०२ जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 मालुयाकच्छ्यं अंतो अंतो अणुप्पविसति, मा० अणु० 2 महया मया सद्दे णं कुहुकुहुस्स परुन्न' / [117] उस समय की बात है, जब सिंह अनगार ध्यानान्तरिका में (एक ध्यान को समाप्त कर दूसरा ध्यान प्रारम्भ करने में) प्रवृत्त हो रहे थे, तभी उन्हें इस प्रकार का आत्मगत यावत् चिन्तन उत्पन्न हुग्रा-मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर के शरीर में विपुल (शरीरव्यापी) रोगातंक प्रकट हा. जो अत्यन्त दाहजनक (उज्ज्वल) है, इत्यादि, यावत वे छदमस्थ अवस्था में ही काल कर जाएँगे। तब अन्यतीथिक कहेंगे—'वे छद्मस्थ अवस्था में ही कालधर्म को प्राप्त हो गए। इस प्रकार के इस महामानसिक मनोगत दुःख से पीड़ित बने हुए सिंह अनगार प्रातापनाभूमि से नीचे उतरे। फिर वे मालुकाकच्छ में आए और उसके अंदर प्रविष्ट हो गए। फिर वे जोर-जोर से रोने लगे। 118. 'अज्जो' ति समजे भगवं महावीरे समणे निग्गंथे आमंतेति, आमतेत्ता एवं वदासि'एवं खलु प्रज्जो ! ममं अंतेवासी सोहे नाम अणगारे पगतिभद्दए०, तं चेव सव्वं भाणियन्वं जाव परुन्ने / तं गच्छह णं अज्जो ! तुम्भे सोहं अणगारं सद्दह। [118] (उस समय) 'पार्यो !' इस प्रकार से श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों को आमंत्रित करके यों कहा--'हे आर्यो! आज मेरा अन्तेवासी (शिष्य) प्रकृतिभद्र यावत् विनीत सिंह नामक अनगार, इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् कहना; यावत् अत्यन्त जोर-जोर से रो रहा है।' इसलिए, हे आर्यो ! तुम जाओ और सिंह अनगार को यहाँ बुला लामो / 119. तए णं ते समणा निग्गंथा समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ता समाणा समणं भगवं महावीरं वदति नमसंति, 60 2 समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतियातो सालकोद्वयातो चेतियातो पडिनिक्खमंति, सा० 50 2 जेणेव मालुयाकच्छए, जेणेव सीहे अणगारे तेणेव उवागच्छंति, उवा० 2 सोहं अणगारं एवं क्यासी-'सीहा ! धम्मायरिया सद्दावेति' / [119] श्रमण भगवान महावीर ने जब उन श्रमणनिर्ग्रन्थों से इस प्रकार कहा, तो उन्होंने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार किया। फिर भगवान महावीर के पास से शालकोष्ठक उद्यान से निकल कर, वे मालुकाकच्छवन में, जहाँ सिंह अनगार थे, वहाँ पाए और सिंह अनगार से कहा-'हे सिह ! धर्माचार्य तुम्हें बुलाते हैं।' 120. तए णं से सीहे अणगारे समहि निरगंथेहिं सद्धि मालुयाफच्छगाओ पडिनिक्खमति, प० 2 जेणेव सालकोटुए चेतिए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवा० समणं मगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण जाव पन्जुवासति / [120] तब सिंह अनगार उन श्रमण-निर्ग्रन्थों के साथ मालुकाकच्छ से निकल कर शाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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