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________________ 118] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [18] तदनन्तर वह पुष्कली श्रमणोपासक, शंखश्रमणोपासक की पौषधशाला से लौटा और श्रावस्ती नगरी के मध्य में से होकर, जहाँ वे (साथी) श्रमणोपासक थे, वहाँ पाया / फिर उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार बोला--''देवानुप्रियो ! शंख श्रमणोपासक निराहार-पौषधवत अंगीकार करके पौषधशाला में स्थित है / (उसने कह दिया कि "देवानुप्रियो ! तुम सब स्वेच्छानुसार उस विपुल अशनादि पाहार को परस्पर देते हुए यावत् उपभोग करते हुए पौषध का अनुपालन कर लो। शंख श्रमणोपासक अब नहीं आएगा।" 19. तए गं ते समणोवासगा तं विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं आसाएमाणा जाव विहरंति। [19] यह सुन कर उन श्रमणोपासकों ने उस विपुल अशन-पान-खाद्य-स्वाधरूप आहार को खाते-पीते हुए यावत् पौषध करके धर्मजागरणा की। विवेचन-प्रस्तुत दो सूत्रों (18-16) में वर्णन है कि पुष्कली द्वारा शंख श्रमणोपासक के निराहार पौषध करने और हमें स्वेच्छा से आहार करते हुए पौषध करने की सम्मति देने का वृत्तान्त सुनाने पर सबने मिलकर आहारपूर्वक पौषध का अनुपालन किया / शंख एवं अन्य श्रमणोपासक भगवान् की सेवा में 20. तए गं तस्स संखस्स समणोवासगस्स पुश्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारवे जाव समुप्पज्जित्था-'सेयं खलु मे कल्लं पादु० जाव जलते समणं भगवं महावीरं बंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जुवासित्ता तो पडिनियत्तस्स पक्खियं पोसहं पारित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेति, एवं सं० 2 कल्लं जाव जलते पोसहसालाओ पडिनिक्खमति, पो० प० 2 सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाइं वत्थाई पवर परिहिते सथातो गिहातो पडिनिक्खमति, स० 50 2 पायविहारचारेणं सास्थि णरि मज्झमझेणं जाव पज्जुवासति / अभिगमो नस्थि / [20] इधर उस शंख श्रमणोपासक को पूर्वरात्रि व्यतीत होने पर, पिछली रात्रि के समय में धर्म-जागरिकापूर्वक जागरणा करते हुए इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् (संकल्प) उत्पन्न हुग्रा'कल प्रातःकाल यावत जाज्वल्यमान सर्योदय होने पर मेरे लिये यह श्रेयस्कर है कि श्रमण भगवान महावीर को वन्दना नमस्कार करके यावत् उनकी पर्युपासना करके वहाँ से लौट कर पाक्षिक पौषध पारित करू। उसने इस प्रकार का पर्यालोचन किया और फिर (तदनुसार) प्रातःकाल सूर्योदय होने पर अपनी पौषधशाला से बाहर निकला / शुद्ध (स्वच्छ) एवं सभा में प्रवेश करने योग्य मंगल (मांगलिक) वस्त्र ठीक तरह से पहने, और अपने घर से चला / वह पैदल (पादविहारपूर्वक) चलता हुआ श्रावस्ती नगरी के मध्य में होकर भगवान् की सेवा में पहुँचा, यावत् उनकी पर्युपासना करने लगा। वहाँ अभिगम नहीं (कहना चाहिए / ) 21. तए णं ते समणोवासमा कल्लं पादु० जाव जलते व्हाया करबलिकम्मा जाव सरीरा सहि सरहिं गिहेहितो पडिनिवखमंति, स० 102 एगयनो मिलायंति, एगयओ मिलाइत्ता सेसं जहा पढमं जाव पज्जुवासंति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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