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________________ [447 नवम शतक : उद्देशक-३१] णो अजोगी होज्ज–अवधिज्ञानी को अवधिज्ञान काल में अयोगी-अवस्था प्राप्त नहीं होती। सागारोवउत्ते वा–विभंगज्ञान से निवृत्त होने वाला अवधिज्ञानी, दोनों उपयोगों में से किसी भी एक उपयोग में प्रवृत्त होना है। साकारोपयोग एवं अनाकारोपयोग का अर्थ- साकारोपयोग अर्थात् ज्ञान और अनाकारोपयोग अर्थात् ज्ञानोपयोग से पूर्व होने वाला दर्शन (निराकार ज्ञान)। वज्रऋषभनाराच-संहनन ही क्यों ? यहाँ जो अवधिज्ञानी के लिए वज्रऋषभनारात्रसंहनन का कथन किया गया है, वह आगे प्राप्त होने वाले केवलज्ञान की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि केवलज्ञान की प्राप्ति बज्रऋषभनाराच-सहनन बालों को ही होती है। सवेदी आदि का तात्पर्य विभंगज्ञान से अवधिज्ञान काल में साधक सवेदी होता है, क्योंकि उस दशा में उसके वेद का क्षय नहीं होता / विभंगज्ञान से अवधिज्ञान प्राप्त करने की जो प्रक्रिया है, उस प्रक्रिया का स्त्री में स्वभावतः अभाव होता है। अतः सवेदी में वह पुरुषवेदी एवं कृत्रिमनपुसकवेदी होता है। सकसाई होज्ज-विभंगज्ञान एवं अवधिज्ञान के काल में कषायक्षय नहीं होता, किन्तु संज्वलनकषाय होता है, क्योंकि विभगज्ञान के अवधिज्ञान में परिणत होने पर वह अवधिज्ञानी साधक जब चारित्र अंगीकार कर लेता है, तब उसमें संज्वलन के ही क्रोधादि चार कषाय होते हैं। प्रशस्त अध्यवसायस्थान ही क्यों ?--विभगज्ञान से अबधिज्ञान की प्राप्ति अप्रशस्त अध्यवसाय वाले को नहीं होती, इसलिए अबधिज्ञानी में प्रशस्त अध्यवसायस्थान ही होते हैं। उक्त अवधिज्ञानी को केवलज्ञान-प्राप्ति का क्रम 26. से णं पसत्थेहि अज्झवसाणेहि वट्टमाणे अणंतेहि नेरइयभवग्गोहतो अप्पाणं विसंजोएइ, अणतेहि तिरिक्खजोणिय जाव विसंजोएइ, अणतेहिं मणुस्सभवग्गणेहितो अप्पाणं विसंजोएइ, अणतेहिं देवभवागहहितो अप्पाणं विसंजोएइ, जाओ वि य से इमाओ नेरइय-तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवगतिनामाओ उत्तरपयडीओ तासि च णं उवगहिए अणताणुबंधी कोह-माण-मायालोभे खवेइ, अणंताणबंधी कोह-माण-माया-लोभे खवित्ता अपच्चक्खाणकसाए कोह-माण-माया-लोभे खवेइ, अपच्चक्खाणकसाए कोह-माण-माया-लोभे खवित्ता पच्चक्खाणावरणे कोह-माण-माया-लोभे खवेइ, पच्चक्खाणावरणे कोह-माण-माया-लोभे खवित्ता संजलणे कोह-माण-माया-लोभे खवेइ / संजलणे कोह-माण-माया-लोभे खवित्ता पंचविहं नाणावरणिज्जं नवविहं दरिसणावरणिज्ज पंचविहमंतराइयं तालमत्थकडं च णं मोहणिज्जं कटु कम्मरयविकरणकर अपुवकरणं अणुपविट्ठस्स अणंते अणुत्तरे निव्वाधाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाण-दसणे समुप्पज्जति / / |26| वह अवधिज्ञानी बढ़ते हुए प्रशस्त अध्यवसायों से, अनन्त नैरयिकभव-ग्रहणों से अपनी आत्मा को विसंयुक्त (-विमुक्त) कर लेता है, अनन्त तिर्यञ्चयोनिक भवों से अपनी आत्मा को विसंयुक्त कर लेता है, अनन्त मनुष्यभव-ग्रहणों से अपनी आत्मा को विसंयुक्त कर लेता है और अनन्त देव-भवों से अपनी आत्मा को वियुक्त कर लेता है / जो ये नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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