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________________ [समवायाङ्गसूत्र विवेचन-दर्शनमोह का जब कोई जीव सर्वप्रथम उपशमन करके सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है, तब वह अनादिकाल से चले आ रहे दर्शनमोहनीय कर्म के तीन विभाग करता है / तब बह चारित्रमोह के उक्त पच्चीस भेदों के साथ अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्तावाला होता है / परन्तु अभव्य जीव कभी सम्यग्दर्शन को प्राप्त ही नहीं करते, अतः अनादि मिथ्यात्व के वे तीन विभाग भी नहीं कर पाते हैं। इससे उनके सदा ही मोहनीय कर्म की छब्बीस प्रकृतियाँ ही सत्ता में रहती हैं। मिश्र और सम्यक्त्वमोहनीय की सत्ता उनमें नहीं होती। १७६-इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं छन्वीसं पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता / अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं छब्बीस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं छन्वीसं पलिमोवमाई ठिई पण्णत्ता। सोहम्मीसाणे णं देवाणं अत्थेगइयाणं छठवीसं पलिप्रोवमाइं ठिई पण्णत्ता। __इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति छब्बीस पल्योपम कही गई है / अधस्तन सातवीं महातमःप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति छब्बीस सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति छब्बीस पल्योपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्प में रहनेवाले कितनेक देवों की स्थिति छब्बीस पल्योपम कही गई है। १७७–मज्झिममज्झिमगेवेज्जयाणं देवाणं जहण्णणं छव्वीस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता जे देवा मज्झिमहेट्ठिमगेवेज्जयविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं छब्बीस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। ते णं देवा छब्बीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा / तेसि णं देवाणं छव्वीसं वाससहस्सेहि आहारट्टे समुप्पज्जइ। संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे छब्बीसेहिं भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिसंति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / मध्यम-मध्यम ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति छब्बीस सागरोपम कही गई है। जो देव मध्य-अधस्तनप्रैवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति छब्बीस सागरोपम कही गई है। वे देव छब्बीस अर्धमासों (तेरह मासों) के बाद प्रान-प्राण या उच्छ्वासनिःश्वास लेते हैं / उन देवों के छब्बीस हजार वर्षों के बाद पाहार की इच्छा उत्पन्न होती है। ___ कितनेक भवसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो छब्बीस भव करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्वदुःखों का अन्त करेंगे। ॥षड्विंशतिस्थानक समवाय समाप्त // सप्तविंशतिस्थानक-समवाय १७८-सत्तावीसं अणगारगुणा पण्णत्ता, तं जहा-पाणाइवायाओ वेरमणं 1, मुसावायायो वेरमणं 2, प्रदिन्नादाणाओ वेरमणं 3, मेहुणानो वेरमणं 4, परिग्गहाम्रो वेरमणं 5, सोइंदियनिग्गहे 6, चविखदियनिग्गहे 7, घाणिदियणिग्गहे 8, जिभिदियणिग्गहे 9, फासिदियनिग्गहे 10, कोहविवेगे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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