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________________ अष्टादशस्थानक समवाय] कायषट्क 12, प्रकल्प 13, (वस्त्र, पात्र, भक्त-पानादि) गृहि-भाजन 14, पर्यङ्क (पलंग आदि) 15, निषद्या (स्त्री के साथ एक प्रासन पर बैठना) 16, स्नान 17 और शरीर-शोभा का त्याग 18 / विवेचन–साधु दो प्रकार के होते हैं-वय (दीक्षा पर्याय) से और श्रुत (शास्त्रज्ञान) से अव्यक्त ----अपरिपक्व और वय तथा श्रुत दोनों से व्यक्त-परिपक्व / इनमें अव्यक्त साधु को क्षुद्रक या क्षुल्लक भी कहते हैं। ऐसे क्षुद्रक और व्यक्त साधुओं के 18 संयमस्थान भगवान् महावीर ने कहे हैं / हिंसादि पांचों पापों का और रात्रि भोजन का यावज्जीवन के लिए सर्वथा त्याग करना व्रतषट्क है। पृथिवी आदि छह काया के जीवों को रक्षा करना कायषट्कवर्जन है / अकल्पनीय भक्त-पान का त्याग, गृहस्थ के पात्र का उपयोग नहीं करना, पलंगादि पर नहीं सोना, स्त्री-संसक्त आसन पर नहीं बैठना, स्नान नहीं करना और शरीर की शोभा-शृगारादि नहीं करना / इन अठारह स्थानों से साधुओं के संयम की रक्षा होती है। १२७-आयारस्स णं भगवतो सचूलियागस्स अट्ठारस पयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ता। चूलिका-सहित भगवद्-प्राचाराङ्ग सूत्र के पद-प्रमाण से अठारह हजार पद कहे गये हैं। 128 बंभीए णं लिवोए अद्वारसविहे लेखविहाणे पण्णत्ते / तं जहा-बंभी 1, जवणालिया 2, दोसऊरिया 3, खरोट्टिया 4, खरसाविआ 5, पहाराइया 6, उच्चत्तरिआ 7, अक्खरपुट्ठिया 8, भोगवइता 9, वेणतिया 10, णिण्हइया 11, अंकलिवी 12, गणिअलिवी 13, गंधबलिवी [भूयलिवी] 14, आईसलिवी 15, माहेसरीलिवी 16, दामिलिवी 17, वोलिदलिवी 18 / ब्राह्मी लिपि के लेख-विधान अठारह प्रकार के कहे गये हैं। जैसे--१. ब्राह्मीलिपि, 2. यावनीलिपि, 3. दोषउपरिकालिपि, 4. खरोष्ट्रिकालिपि, 5. खर-शाविका लिपि, 6. प्रहारातिकालिपि, 7. उच्चत्तरिका लिपि, 8. अक्षरपृष्ठिकालिपि, 9. भोगवतिकालिपि, 10. वैण कियालिपि, 11. निह्नविकालिपि, 12. अंकलिपि, 13. गणितलिपि, 14. गन्धर्व लिपि, [भूतलिपि] 15. प्रादर्श लिपि, 16. माहेश्वरी लिपि, 17. दामिलिपि, 18. पोलिन्दीलिपि / विवेचन संस्कृत टीकाकार ने लिखा है कि इन लिपियों का स्वरूप दष्टिगोचर नहीं होता है। फिर भी वर्तमान में प्रचलित अनेक लिपियों का बोध होता है। जैसे—यावनीलिपि अर्बी-फारसी, उड़ियालिपि, द्राविड़ीलिपि आदि / अागम-ग्रन्थों में भी लिपियों के नामों में भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। 129 ---अत्थिनस्थिप्पवायस्स णं पुवस्स अट्ठारस वत्थू पण्णत्ता / अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व के अठारह वस्तु नामक अर्थाधिकार कहे गये हैं। १३०–धूमप्पभा णं पुढवी अट्ठारसुत्तरं जोयणसयसहस्सं बाहल्लेणं पण्णत्ता। पोसासाढेसु णं मासेसु सइ उक्कोसेणं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, सइ उक्कोसेणं अट्ठारसमुहुत्ता रातो भव। धूमप्रभा नामक पांचवीं पृथिवी की मोटाई एक लाख अठारह हजार योजन कही गई है। पौष और प्राषाढ़ मास में एक बार उत्कृष्ट रात और दिन क्रमशः अठारह मुहूर्त के होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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