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________________ चतुर्थ स्थान-द्वितीय उद्देश ] [ 263 2. तहेव जाव [कद्दमरागरत्तवत्थसमाणं लोभमणुपविट्ठ जीवे कालं करेइ, तिरिक्खजोणिएस उववज्जइ। 3. खंजणरामरत्तवत्थसमाणं लोभमणपवितै जीवे कालं करेइ, मणुस्सेस उववज्जइ / 4. हलिद्दरागरत्तवत्थसमाणं लोभमणुपविट्ठ जीवे कालं करेइ, देवेसु उववज्जइ / वस्त्र चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे-- 1. कृमि रागरक्त कृमियों के रक्त से, या किमिजी रंग से रंगा हुअा वस्त्र / 2. कर्दमरागरक्त-कीचड़ से रंगा हुमा वस्त्र / 3. खञ्जनरागरक्त-काजल के रंग से रंगा हया वस्त्र / 4. हरिद्रारागरक्त–हल्दी के रंग से रंगा हुआ वस्त्र / इसी प्रकार लोभ भी चार प्रकार का कहा गया है, जैसे - 1. कृमिरागरक्त वस्त्र के समान अत्यन्त कठिनाई से छूटने वाला अनन्तानुबन्धी लोभ / 2, कदमरागरक्त वस्त्र के समान काठनाई से छूटने वाला अप्रत्याख्यानावरण लोभ / 3. खञ्जनरागरक्त वस्त्र के समान स्वल्प कठिनाई से छूटने वाला प्रत्याख्यानावरण लोभ / 4. हरिद्रारागरक्त वस्त्र के समान सरलता से छुटने वाला संज्वलन लोभ / 1. कृमिरागरक्त वस्त्र के समान लोभ में प्रवर्तमान जीव काल कर नारकों में उत्पन्न होता है / 2. कर्दमरागरक्त वस्त्र के समान लोभ में प्रवर्तमान जीव काल कर तिर्यग्योनिकों में उत्पन्न होता है। 3. खजनरागरक्त वस्त्र के समान लोभ में प्रवर्तमान जीव काल कर मनुष्यों में उत्पन्न होता है। 4. हरिद्रारागरक्त वस्त्र के समान लोभ में प्रवर्तमान जीव काल कर देवों में उत्पन्न होता है (284) / विवेचन-प्रकृत मान, माया और लोभ पद में दिये गये दृष्टान्तों के द्वारा अनन्तानुबन्धी आदि चारों जाति के मान, माया और लोभ कषायों के स्वभावों को और उनके फल को दिखाया गया है / क्रोध कषाय की चार जातियों का निरूपण अागे इसी स्थान के तीसरे उद्देश के प्रारम्भ में किया गया है। सूत्र संख्या 283 में संज्वलन मान का उदाहरण तिणिसलया (तिनिशलता) के खम्भे का दिया गया है। टीकाकार ने इसका अर्थ वृक्षविशेष किया है, किन्तु 'पाइप्रसद्दमहण्णवो' में इसका अर्थ 'वेंत' किया है और कसायपाहडसूत्त, प्राकृत पंचसंग्रह और गोम्मटसार के जीवकाण्ड में तिनिशलता के स्थान पर 'वेत्र'१ पद का स्पष्ट उल्लेख है। अतः यहां भी इसका अर्थ वैत किया गया है। अनन्तानुबन्धी लोभ का उदाहरण कृमिरागरक्त वस्त्र का दिया है। इसके विषय में दो अभिमत मिलते हैं। प्रथम अभिमत यह है कि मनुष्य का रक्त लेकर और उसमें कुछ अन्य द्रव्य मिला कर किसी बर्तन में रख देते हैं। कुछ समय के पश्चात् उसमें कीड़े पड़ जाते हैं। वे हवा में आकर लाल रंग की लार छोड़ते हैं, उस लार को एकत्र कर जो वस्त्र बनाया जाता है, उसे कृमिरागरक्त कहा जाता है। 1. सेलट्ठिकट्ठवेत्ते णियभेएणणुहरंतो माणो। णारय-तिरिय-ण रामरगईसूप्पायनो कममो / / (गो० जीवकाण्ड गा० 284) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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