________________ सम्पादकीय प्राचारांग सूत्र का सम्पादन करते समय यह अनुभव होता था कि यह पागम प्राचार-प्रधान होते हुए भी इसकी वचनावली में दर्शन की अतल गहराइयाँ व चिन्तन की असीमता छिपी हुई है। छोटे-छोटे आर्ष-वचनों प्रसीम अनुभूति का स्पन्दन तथा ध्यान-योग की प्रात्म-संवेदना का गहरा 'नाद' उनमें गुजायमान है, जिसे सुनने-समझने के लिए 'साधक' की भूमिका अत्यन्त अपेक्षित है। वह अपेक्षा कब पूरी होगी, नहीं कह सकता, पर लगे हाथ आचारांग के बाद द्वितीय अंग-सूत्रकृतांग के पारायण में, मैं लग गया। सूत्रकृतांग के दो श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम श्रु तस्कन्ध पद्य-शैली में सूत्र-प्रधान है, द्वितीय गद्य-शैली में वर्णन प्रधान है। सुत्रकृतांग प्रथम श्र तस्कन्ध, प्राचारांग की शैली का पूर्ण नहीं तो बहलांश में अनुसरण करता है। उसके आचार में दर्शन था तो इसके दर्शन में 'प्राचार' है। विचार की भूमिका का परिष्कार करते हुए प्राचार की भूमिका पर आसीन करना सूत्रकृतांग का मूल स्वर है-ऐसा मुझे अनुभव हुआ है। __ 'मूत्रकृत' नाम ही अपने आप में गंभीर अर्थसूचना लिये है। प्रार्य सुधर्मा के अनुसार यह स्व-समय (स्व-सिद्धान्त) और पर-समय (पर-सिद्धान्त) की सूचना (सत्यासत्य-दर्शन) कराने वाला शास्त्र है / ' नन्दीसूत्र (मूल-हरिभद्रीयवृत्ति एवं चूणि) का प्राशय है कि यह प्रागम स-सूत्र (धागे वाली सूई) की भांति लोक एवं प्रात्मा प्रादि तत्वों का अनुसंधान कराने वाला (अनुसंधान में सहायक) शास्त्र है। 2 श्रुतपारगामी प्राचार्य भद्रबाहु ने इसके विविध अर्थों पर चिन्तन करके शब्द शास्त्र की दृष्टि से इसेश्रत्वा कृतं = 'सूतकडं' कहा है-अर्थात तीर्थंकर प्रभु की वाणी से सुनकर फिर स चिन्तन को गणधरों ने ग्रन्थ का, शास्त्र का रूप प्रदान किया है / भाव की दृष्टि से यह सूचनाकृत - 'सूतकडं'–अर्थात्-निर्वाण या मोक्षमार्ग की सूचना-अनुसन्धान कराने वाला है। 3 'सूतकडं' शब्द से जो गंभीर भाव-बोध होता है वह अपने पाप में बहुत महत्त्वपूर्ण है, बल्कि सम्पर्ण आगम का सार सिर्फ चार शब्दों में सन्निहित माना जा सकता है। सूत्रकृतांग की पहली गाथा भी इसी भाव का बोध करती है। बुज्झिज्ज ति तिउज्जा-समझो, और तोड़ो (क्या) बन्धणं परिजाणिया-बंधन को जानकर / किमाह बन्धणं बोरो भगवान् ने बन्धन किसे बताया है ? किवा जाणं तिउद्रह-और उसे कैसे तोड़ा जा सकता है ? 4 1. सूयगडे ण सममया गुइज्जति परममया सूइज्जति--समवायांग मूत्र 2. नन्दीगुत्र मूल वृत्ति पृ० 77, चूणि पृ० 63. 3. देखिए नियुक्ति-गाथा 18, 19, 20 तथा उनकी शीलांकवृत्ति 4. सूत्रकृतांग गाथा 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org