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________________ परिशिष्ट : 3 'जाव' शब्द संकेतित सूत्र सूचना प्राचीनकाल में आगम तथा श्र तज्ञान प्रायः कण्ठस्थ रखने की परिपाटी थी। कालान्तर में स्मृति-दौर्बल्य के कारण आगम-ज्ञान लुप्त होता देखकर वीर निर्वाण संवत 100 के लगभग श्री देवद्धिगण क्षमाश्रमण के निर्देशन में आगम लिखने की परम्परा प्रारम्भ हई।' स्मृति की दुर्वलता, लिपि की सुविधा, तथा कम लिखने की वृत्ति—इन तीन कारणों से सूत्रों में आये बहुत-से समानपद जो बार-बार आते थे, उन्हें संकेतों द्वारा संक्षिप्त कर देने की परम्परा चल पड़ी। इससे पाठ लिखने में बहुत सी पुनरावृत्तियों से बचा गया / इस प्रकार के संक्षिप्त संकेत आगमों में अधिकतर तीन प्रकार के मिलते हैं। 1. वण्णओ-(अमुक के अनुसार इसका वर्णन समझें) भगवती, ज्ञाता, उपासकदशा आदि अंग व उववाई आदि उपांग आगमों में इस संकेत का काफी प्रयोग हुआ है। उववाई सूत्र में बहुत-से वर्ण हैं जिनका संकेत अन्य सूत्रों में मिलता है। 2, जाव-~-(यावत्) एक पद से दूसरे पद के बीच के दो, तीन, चार आदि अनेक पद बार-बार न दुहराकर 'जाव' शब्द द्वारा सूचित करने की परिपाटी आचारांग, उववाई आदि सूत्रों में मिलती है। आचारांग में जैसे—सूत्र 324 में पूर्ण पाठ है 'अप्पंडे अप्पपाणे अप्पबीए, अप्पहरिए, अप्पोसे अप्पुदए अप्पुत्तिग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा-संताणए' आगे जहाँ इसी भाव को स्पष्ट करना है, वहाँ सूत्र 412, 455, 570 आदि में 'अप्पडे जाव' के द्वारा संक्षिप्त कर संकेत मात्र कर दिया गया है। इसीप्रकार 'जाव' पद से अन्यत्र भी समझना चाहिए। हमने प्रायः टिप्पण में 'जाव' पद से अभीष्ट सूत्र की संख्या सूचित करने का ध्यान रखा है। कहीं विस्तृत पाठ का बोध भी 'जाव' शब्द से किया गया है। जैसे सूत्र 217 में "अहेसणिज्जाई वत्थाई जाएज्जा जाव" यहाँ मूत्र 214 के 'अहेसणिज्जाई वत्थाई जाएज्जा, अहापरिग्महियाई वत्थाई धारेज्जा, णो राज्जा, णो धोत-रत्ताई वत्थाई धारेज्जा अपलिउंचमाणे गामंतरेस ओमवेलिए।' इस समग्र पाठ का 'जाव' शब्द द्वारा बोध करा दिया है। इसी प्रकार उववाइ आदि सूत्रों में जो वर्णन एक बार आगया है, दुबारा आने पर वहां 'जाव' शब्द का उपयोग किया गया है। जैसे-तेणं कालेणं.......जाव परिसा सिणग्गया।" यहां 'तेणं कालेणं तेणं समएणं' आदि बहत लम्बे पाठ को 'जाव' में समाहित कर लिया है। 3. अंक संकेत-संक्षिप्तीकरण को यह भी एक शैली है। जहाँ दो, तीन, चार या अधिक समान पदों का बोध कराना हो, वहाँ अंक 2, 3, 4, 6 आदि अंकों द्वारा संकेत किया गया है / जैसे (क) सूत्र 324 में-से भिक्खू वा भिक्खूणी वा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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