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________________ 34 आचारसंग सूत्र-प्रथम श्र तस्कम्ध अकल्याण होगा, इस प्रकार का आत्म-चिन्तन और प्रात्म-मंथनकरके अहिंसा की भावना को संस्कारबद्ध बनाना--यह उक्त पालम्बनों का फलितार्थ है। जो अध्यात्म को जानता है, वह बाह्य को जानता है - इस पद का कई दृष्टियों से चिन्तन किया जा सकता है। 1. अध्यात्म का अर्थ है--चेतन/प्रात्म-स्वरूप / चेतन के स्वरूप का बोध हो जाने पर इसके प्रतिपक्ष 'जड' का स्वरूप-बोध स्वयं ही हो जाता है। अतः एक पक्ष को सम्यक प्रकार में जानने वाला उसके प्रतिपक्ष को भी सम्यक् प्रकार से जान लेता है। धर्म को जानने वाला अधर्म को, पुण्य को जानने वाला पाप को, प्रकाश को जानने वाला अंधकार को जान लेता है। 2. अध्यात्म का एक अर्थ है--प्रान्तरिक जगत् अथवा जीव को मूल वृत्ति-सुख की इच्छा, जीने की भावना / शान्ति की कामना / जो अपनी इन वृत्तियों को पहचान लेता है वह बाह्य--अर्थात् अन्य जीवों की इन वृत्तियों को भी जान लेता है। अर्थात् स्वयं के समान, ही अन्य जीव सुखप्रिय एवं शान्ति के इच्छुक हैं, यह जान लेना वास्तविक अध्यात्म है / इसी से आत्म-तुला को धारणा संपुष्ट होती है। __शांति-गत-का अर्थ है--जिसके कषाय विषय/तृष्णा आदि शान्त हो गये हैं, जिसकी ग्रात्मा परम प्रसन्नता का अनुभव करती है। द्रविक-'द्रव' का अर्थ है-घुलनशील या तरल पदार्थ / किन्तु अध्यात्मशास्त्र में 'द्रव का अर्थ है, हृदय की तरलता, सरलता, दयालुता और संयम / इसी दष्टि से टीकाकार ने 'विक' का अर्थ किया है-करुणाशील संयमी पुरुष / पराये दुःख से द्रवीभूत होना सज्जनों का लक्षण है / अथवा कर्म की कठिनता को द्रवित-पिघालने वाला 'द्रविक' है।" जीविउं-कुछ प्रतियों में 'वीजिउ' पाठ भी है। वायुकाय की हिंसा का वर्णन होने से यहां पर उसकी भी संगति बैठती है कि वे संयमी वीजन (हवा लेना) की आकांक्षा नहीं करते। चणिकार ने भी कहा है- मुनि तालपत्र आदि बाह्य पुद्गलों से वीजन लेना नहीं चाहते हैं, माथ ही चूणि में 'जीवितु' पाठान्तर भी दिया है। वायुकायिक-जीव-हिंसा-वर्जन 57. लज्जमाणा पुढो पास / 'अणगारा मों' त्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि वाउकम्मसमारंभेगं वाउसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति / 58. तत्थ खलु भगवता परिणा पवेदिता-इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण-माणणपूयणाए जाती-मरण-मोयणाए दुक्खपडिघातहेतु से सयमेव वाउहत्थं समारभति, अनुहि वा वाउसत्थं समारभावेति, अण्णे वा वाउसत्थं समारभंते समाजाणति / तं से अहियाए, तं से अबोधीए। 1. श्राचा गानाकठीका पत्र 7011 . देखें, एट 36 पर टिप्पण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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