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________________ आचारां। सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध (1) मंदता, विवेक बुद्धि की अल्पता, तथा (2) अज्ञान / संसार में परिभ्रण अर्थात् जन्म-मरण के ये दो मुख्य कारण हैं / विवेक दृष्टि एवं ज्ञान जाग्रत होने पर मनुष्य संसार से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। परिनिर्वाण' शब्द वैसे मोक्ष का वाचक है। 'निर्वाण' का शब्दार्थ है बुझ जाना 1 जसे तेल के क्षय होने से दीपक बुझ जाता है, वैसे राग-द्वेष के क्षय होने से संसार (जन्म-मरण) समाप्त हो जाता है और मात्मा सब दुःखों से मुक्त होकर अनन्त सुखमय-स्वरूप प्राप्त कर लेता है। किन्तु प्रस्तुत प्रसंग में परिनिर्वाण' का यह ब्यापक अर्थ ग्रहण नहीं कर परिनिर्वाण' से सर्वविध सुख, अभय, दुःख और पीड़ा का अभाव आदि अर्थ ग्रहण किया गया है।' और बताया गया है कि प्रत्येक जीव सुख, शान्ति और अभय का आकांक्षी है / अशान्ति, भय, वेदना उनको महान भय व दुःखदायी होता है। अतः उनकी हिंसा न करे। प्राण, भूत, जीव, सन्वये चारों शब्द-सामान्यतः जीव के ही वाचक हैं। शब्दनय (समभिरूढ नय) की अपेक्षा से इनके अलग-अलग अर्थ भी किये गये हैं। जैसे भगवती सूत्र (2/1) में बताया है दश प्रकार के प्राण युक्त होने से--प्राण है। तीनों काल में रहने के कारण --भूत है।। आयुष्य कर्म के कारण जीता है-अतः जीव है / विविध पर्यायों का परिवर्तन होते हुए भी प्रात्म-द्रव्य की सत्ता में कोई अन्तर नहीं आता, अतः सत्त्व है। टीकाकार प्राचार्य शीलांक ने निम्न अर्थ भी किया है प्राणा: द्वित्रिचतुःप्रोक्ता भूतास्तु तरवः स्मृताः / जीवा: पंचेन्द्रियाः प्रोक्ताः शेषाः सत्वा उदीरिताः / प्राण-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीव / भूत-वनति कायिक जीव / जीव पांच इन्द्रियवाले जीव,-तिर्यच, मनुष्य, देव, नारक / सत्व -पृथ्वी, अप. अग्नि और वायु काय के जीव। अस काय हिंसा मिषेध 50. लज्जमाणा पुढो पास / 'अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा, जमिणं दिरूबरू वेहि सत्थेहिं तसकायसमारंभेणं तसकायसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहि सति / / 50. तू देख ! संयमी साधक जीव हिंसा में लज्जा ग्लानि संकोच का अनुभव करते हैं। और उनको भी देख, जो 'हम गृहत्यागी हैं' यह कहते हुए भी अनेक प्रकार के उपकरणों से त्रसकाय का समारंभ करते हैं / उसकाय की हिना करते हुए वे अन्य अनेक प्राणों की भी हिंसा करते हैं / 1. प्राचा• शीला टीका पत्रांक 64, 2. वहीं, पत्रांक 64 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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