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________________ 340 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध है, जो ग्यारहवें शब्द सप्तक अध्ययन में शब्द श्रवण-निषेध के रूप में वर्णित है। सिर्फ वाद्य शब्दों को छोड़ा गया है। संक्षेप में, उत्कण्ठापूर्वक रूप-दर्शन-निषेध सूत्र इस प्रकार फलित होते हैं--(१) केतकी क्यारियों, खाइयों आदि के रूप को देखने का, (2) नदी तटीय कच्छ, गहन, बन आदि पदार्थों के रूप को देखने का, (3) ग्राम, नगर. राजधानी आदि के रूपों को देखने का, (4) आराम, उद्यान, वनखण्ड, देवालय आदि पदार्थों के रूप देखने का, (5) अटारी, प्राकार, द्वार, राजमार्ग आदि स्थानों के रूप देखने का, (6) नगर के त्रिपथ, चतुष्पथ आदि के रूप देखने का, (7) महिषशाला, वृषभशाला आदि विविध स्थानों के रूप देखने का, (8) विविध युद्ध क्षेत्रों के दृश्य देखने का, (E) आख्यायिकस्थानों, घुड़दौड, कुश्ती आदि द्वन्द्व स्थानों के दृश्य देखने का, (10) वर-वधू मिलन स्थान, अश्वयुगल स्थान आदि विविध स्थानों के दृश्य देखने का, (11) कलहस्थान, शत्रु राज्य, राष्ट्र विरोधी स्थान आदि के रूपों को देखने का, (12) किसी वस्त्र भूषण सज्जित बालिका के, तथा मृत्युदण्ड वेष में अपराधी पुरुष के जुलूस आदि को देखने का, (13) अनेक महास्रव के स्थानों को देखने का, (14) महोत्सव स्थलों एवं वहाँ होने वाले नृत्य आदि देखने का, मन से जरा भी विचार न करे। यद्यपि चूर्णिकार ने रूप सप्तक अध्ययन को 12 वें अध्ययन में न मानकर 11 वें अध्ययन में माना है। इन विविध पाठों की चूणि में इस बात के प्रबल संकेत मिलते हैं / अत: वहाँ सर्वत्र 'कण्णसवणपडियाए' के बदले 'चक्खु दंसणपडियाए' पाठ मिलता है। निशीथ सूत्र के बारहवें उद्देशक में भी ये सब पाठ देकर 'चक्खुवंसणपडियाए' अन्त में दिया गया है / साथ ही अन्तिम 681 सूत्र के अनुसार यहां भी रूपदर्शन निषेध का उपसंहार समझना चाहिए। 1. आचारांग सूत्र वृत्ति पत्रांक 414 के आधार पर। 2. (क) देखें आचारांग चूणि मू० पा० टिप्पण (ख) निशीथचूणि उद्देशक 12 पृ० 201, 203, 348. 345, 346, 347, 348, 646, 350 1. जे वप्पाणि वा... पवाओ"सुहाकम्मतानि "कट्ठकम्मंतानि वा भवणगिहाणि वा.... ___ कच्छाणि वा 'सरसरपंतीओ वा चक्खुदंसणपडियाए गच्छति / जे भिक्ख गामाणि वा "रायधाणीमहाणि वा "चक्खुदंसणपडियाए गच्छति / 3. जे आसकरणाणि वा 'सूकरकरणाणि वा, 'हयजुद्धाणि वा णिउद्घाणि वा उट्ठायुद्धाणि वा चक्खुदंसणपडियाए गच्छति / 4. जे भिक्खू विरूवरूवेसु महुस्सवेसु इत्थीणि वा पुरिसाणि वा मोहंताणि वा परिभुजंताणि वा चक्खुदंसणपडियाए अभिसंधारेइ। 5. जे भिक्खू इहलोइएसु वा रूवेसु, परलोइएसु वा रूवेसु दिठेसु वा रूवेसु अमणुण्णेसु वा रूवेसु सज्जइ वा रज्जइ वा गिज्झइ वा अज्झोवबज्जइ वा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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