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________________ प्रथम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 27.32 जो जलकायिक जीवों पर शस्त्र-प्रयोग नहीं करता, वह प्रारंभों का ज्ञाता है, वह हिंसा-दोष से मुक्त होता है। अर्थात् वह ज्ञ-परिज्ञा से हिंसा को जानकर प्रत्याख्यान-परिज्ञा से उसे त्याग देता है / 30. बुद्धिमान् मनुष्य यह (उक्त कथन) जानकर स्वयं जलकाय का समारंभ न करे, दूसरों से न करवाए, और उसका समारंभ करने वालों का अनुमोदन न करे। 31. जिसको जल-सम्बन्धी समारंभ का ज्ञान होता है, वही परिज्ञातकर्मा (मुनि) होता है। —ऐसा मैं कहता हूँ। " तृतीय उद्देशक समाप्त // चउत्थो उद्देसओ चतुर्थ उद्देशक अग्निकाय की सजीवता 32. से बेमि-णेव सयं लोग अन्भाइक्खेज्जा, णेब अत्ताणं अन्भाइक्खेज्जा / जे लोग अम्भाइक्खति से अत्ताणं भन्भाइयखति / जे अत्ताणं अम्भाइक्खति से लोग अब्भाइक्खति / जे दीहलोगसत्थस्स खयण्णे से असत्थस्स खयण्णे / जे भसत्थस्स खेयण्णे से दीहलोगसत्थस्स खेयण्णे। 32. मैं कहता हूँ . वह (जिज्ञासु साधक) कभी भी स्वयं लोक (अग्निकाय) के अस्तित्व का, अर्थात् उसकी सजीवता का अपलाप (निषेध) न करें। न अपनी आत्मा के अस्तित्व का अपलाप करे। क्योंकि जो लोक (अग्निकाय) का अपलाप करता है, वह अपने आप का अपलाप करता है। जो अपने आप का अपलाप करता है वह लोक का अपलाप करता हैं। जो दीर्घलोकशस्त्र (अग्निकाय) के स्वरूप को जानता है वह अशस्त्र (संयम) का स्वरूप भी जानता है। जो संयम का स्वरूप जानता है वह दोघलोकशस्त्र का स्वरूप भी जानता है। विवेचन-यहाँ प्रसंगानुसार 'लोक' शब्द अग्निकाय का बोधक है / तत्कालीन धर्मपरम्परागों में जल को, तथा अग्नि को देवता मानकर पूजा तो जाता था, किन्तु उनकी हिंसा के सम्बन्ध में कोई विचार नहीं किया गया था। जल से शुद्धि और पंचाग्नि तप आदि से सिद्धि मानकर इनका खुल्लमखुल्ला प्रयोग/उपयोग किया जाता था। भगवान् महावीर ने अहिंसा की दृष्टि से इन दोनों को सजीव मानकर उनकी हिंसा का निषेध किया है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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