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________________ 228 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध भूतरूप-कोमल फल हैं। इस प्रकार की असावद्य यावत् जीवोपघात-रहित, भाषा विचारपूर्वक बोले। 547. साधु या साध्वी बहुत मात्रा में पैदा हुई औषधियों (गेहूं, चावल आदि के लहलहाते पौधों) को देखकर यों न कहे, कि ये पक गई हैं, या ये अभी कच्ची या हरी हैं, ये छवि (फली) वाली हैं, ये अब काटने योग्य हैं, ये भूनने या सेंकने योग्य हैं, इनमें बहुत-सी खाने योग्य हैं, या चिबड़ा बना कर खाने योग्य हैं / इसप्रकार की सावध यावत् जीवोपधातिनी भाषा साधु न बोले। 548. साधु या साध्वी बहुत मात्रा में पैदा हुई औषधियों को देखकर (प्रयोजनवश) इस प्रकार कह सकता है, कि इनमें बीज अंकुरित हो गए हैं, ये अब जम गई हैं, सुविकसित या निष्पन्न प्रायः हो गई है, या अब ये स्थिर (उपघातादि से मुक्त) हो गई हैं, ये ऊपर उठ गई हैं, ये भुट्टों, सिरों या बालियों से रहित हैं, अब ये भुट्टों आदि से युक्त हैं, या धान्य कणयुक्त हैं / साधु या साध्वी इसप्रकार की निरवद्य यावत् जीवोपघात से रहित भाषा विचारपूर्वक बोले। विवेचन-दश्यमान वस्तुओं को देखकर निरवद्य भाषा बोले, सावद्य नहीं-सू० 533 से 548 तक में आंखों से दृश्यमान वस्तुओं के विविध रूपों को देखकर बोलने का विवेक बताया है / साधु-साध्वी संयमी हैं, पूर्ण अहिंसाव्रती हैं और भाषा-समिति-पालक हैं, उन्हें सांसारिक लोगों की तरह ऐसी भाषा नहीं बोलनी चाहिए, जिससे दूसरे व्यक्ति हिंसादि पाप में प्रवृत्त हों, जीवों को पीड़ा, भीति एवं मृत्यु का दुःख प्राप्त हो, छेदन-भेदन करने की प्रेरणा मिले तात्पर्य यह है कि किसी भी वस्तु को देखकर बोलने से पहले उसके भावी परिणाम को तौलना चाहिए। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के किसी भी जीव की विराधना उसके बोलने से होती हो तो वैसी भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इन सोलह सूत्रों में निम्नोक्त दृश्यमान वस्तुओं को देखकर सावध आदि भाषा बोलने का निषेध और निरवद्य भाषा-प्रयोग का विधान है। (1) गण्डी, कुष्ठी आदि को देखकर गण्डी, कुष्ठी आदि चित्तोपघातक शब्दों का प्रयोग न करे, किन्तु सभ्य, मधुर गुणसूचक भाषा का प्रयोग करे। (2) क्यारियाँ, खाइयां आदि देखकर 'अच्छी बनी हैं', आदि सावध भाषा का प्रयोग न करे, किन्तु निरवद्य, गुणसूचक भाषा-प्रयोग करे। (3) मसालों आदि से सुसंस्कृत भोजन को देखकर बहुत बढ़िया बना है, आदि सावध व स्वाद-लोलुपता सूचक भाषा का प्रयोग न करे, किन्तु आरम्भजनित है, आदि निरवद्य-यथार्थ भाषका प्रयोग करे। (4) परिपुष्ट शरीर वाले पशु-पक्षियों या मनुष्यों को देखकर यह स्थूल है, वध्य है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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