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________________ 142 आचारांग सूत्र---द्वितीय श्रु सस्कन्ध जाना-सुना नहीं है, किन्तु उनके प्रति श्रद्धा, प्रतीति और रुचि से प्रेरित होकर, उन्होंने किसी एक ही प्रकार के निर्ग्रन्थ श्रमण वर्ग के उद्देश्य से लोहकारशाला यावत् भूमिगृह आदि मकान जहाँ-तहाँ बनवाए हैं। उन मकानों का निर्माण पृथ्वीकाय के महान् समारम्भ से यावत् त्रसकाय के महान् संरम्भ-समारम्भ और आरम्भ से तथा नाना प्रकार के महान् पाप कर्मजनक कृत्यों से हुआ है जैसे कि साधु वर्ग के लिए मकान पर छत आदि डाली गई है, उसे लीपा गया है, संस्तारक कक्ष को सम बनाया गया है, द्वार के ढक्कन लगाया गया है, इन कार्यों में शीतल सचित्त पानी पहले ही डाला गया है, (शीतनिवारणार्थ-) अग्नि भी पहले प्रज्वलित की गयी है / जो निम्रन्थ श्रमण उस प्रकार के आरम्भ-निमित लोहकारशाला आदि मकानों में आकर रहते हैं, भेंट रूप में प्रदत्त छोटे-बड़े गृहों में ठहरते हैं, वे द्विपक्ष (द्रव्य से साधुरूप और भाव से गृहस्थरूप) कर्म का सेवन करते हैं। आयुष्मन् ! (उन श्रमणों के लिए) यह शय्या महासावधक्रिया दोष से युक्त होती है। 441. इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में कतिपय गृहपति यावत् नौकरानियों श्रद्धालु व्यक्ति हैं। वे साधुओं के आचार-व्यवहार के विषय में सुन चुके हैं, वे साधुओं के प्रति श्रद्धा, प्रतीति और रुचि से प्रेरित भी हैं, किन्तु उन्होंने अपने निजी प्रयोजन के लिए यत्र-तत्र मकान बनवाए हैं, जैसे कि लोहकारशाला यावत् भूमिगृह आदि / उनका निर्माण पृथ्वीकाय के यावत् त्रसकाय के महान संरम्भ-समारम्भ एवं आरम्भ से तथा नानाप्रकार के पापकर्मजनक कृत्यों से हुआ है। जैसे कि-छत डालने-लीपने, संस्तारक कक्ष सम करने तथा द्वार का ढक्कन बनाने में पहले सचित्त पानी डाला गया है, अग्नि भी प्रज्वलित की गई है। जो पुज्य निर्ग्रन्थ श्रमण उस प्रकार के (गृहस्थ द्वारा अपने लिए निर्मित) लोहकारशाला यावत् भूमिगृह आदि वास स्थानों में आकर रहते हैं, अन्यान्य प्रशस्त उपहाररूप पदार्थों का उपयोग करते है वे एकपक्ष (भाव से साधुरूप) कर्म का सेवन करते हैं। हे आयुष्मन् ! (उन श्रमणों के लिए) यह शय्या अल्पसावधक्रिया (निर्दोष) रूप होती हैं। विवेचन-नौ प्रकार की शय्याएं : कौन-सी अग्राह्य कौनसी ग्राह्य ? सूत्र 432 से लेकर 441 तक नौ प्रकार की शय्याओं का प्रतिपादन करके शास्त्रकार ने प्रत्येक प्रकार की शय्या के गुण-दोषों का विवेक भी बता दिया है। बृहत्कल्प भाष्य में भी शय्याविधिद्वार में इन्हीं नौ प्रकार की शय्याओं का विस्तार से निरूपण किया है--- कालातिक्कतोवठ्ठाण-अभिकत-अणभिकता या वज्जा य महावज्जा सावज्ज महऽप्पकिरिया य॥ __ अर्थात्--शय्या नौ प्रकार की होती है, जैसेकि-(१) कालातिक्रान्ता, (2) उपस्थाना, (3) अभिक्रान्ता, (4) अनभिक्रान्ता, (5) वा, (6) महावा , (7) सावद्या, (8) महासावद्या और (8) अल्पक्रिया। ___ भाष्यकार एवं वृत्तिकार ने वहाँ प्रत्येक का लक्षण देकर विस्तृत वर्णन दिया है जो इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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