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________________ 138 आचारांग सूत्र---द्वितीय श्रुतस्कन्ध जाव गिहाणि वा, जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि वा' जाब भवणमिहाणि वा तेहि अणोवतमाणेहि ओवयंति अयमाउसो ! अणभिक्कतकिरिया या वि भवति / 437. इह खलु पाईणं वा, 4 संतेगइया सड्ढा भवंति, तंजहा--गाहावती वा जाव कम्मकरीओ वा तसि च णं एवं वुत्तपुब्वं भवति-ज इमे भवंति समणा भगवंतो सोलमंता जाव उवरता मेहुणाओ धम्माओ, णो खलु एतेसि भयंताराणं कप्पति आधाकम्मिए उवस्सए वत्थए, से ज्जाणिमाणि अम्हं अप्पणो सयट्ठाए' चेतियाइं भवंति, तं जहा-आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा सव्वाणि ताणि समणाणं णिसिरामो, अवियाई वयं पच्छा वऽप्पणो सयट्ठाए चेतेस्सामो, तंजहा-आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा। ____एतप्पगारं णिग्योसं सोच्चा णिसम्म जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा उवागच्छंति, 2 [त्ता] इतरातितरेहि पाहुडेहि वटुंति, अयमाउसो! वज्जकिरिया यावि भवति / 438. इह खलु पाईणं वा 45 संगतिया सड्ढा भवंति, तेसि च णं आयारगोयरे जाव तं रोयमाहि बहवे समण-माहण जाव पगणिय 2 समुद्दिस्स तत्थ 2 अगारोहि अगाराइं चेति१. 'आएसणाणि' वा से लेकर 'गिहाणि वा तक का पाठ सू० 435 के अनुसार 'जाव' शब्द से सूचित किया है। अप्पणो सयठाए की चूणिकृत व्याख्या-''साहू सीलमंत त्ति काऊण एते आहाकम्पम्मि ण वदति अप्पणो सयट्ठाए एतेसि देमो अप्पणो अपणाई करेमो ।'---अर्थात् ये साधु शीलवान साधु-धर्म-मर्यादा में स्थित है, इसलिए ये आधाकर्मादि दोष युक्त स्थान में नहीं रहते, अतः अपने निजी प्रयोजन के लिए मकान बनवा कर इन्हें देंगे, और अपने लिए दूसरा बनवा लेंगे।' 3. इतरातितरेहि के बदले पाठान्तर मिलते हैं--इतराइतरेहि इयरंतरेहि, इतरातिरेहि।" चूर्णिकार इसका भावार्थ करते हैं-'कालातिक्कता अणभिक्कंता इमा बज्जा इतरा, एवं सेसा वि, इतरा इतरा अपसत्थतरा इत्यर्थः / ' अर्थात्-कालातिकान्ता, अनभिक्कता और यह बा इतरा है, इसी प्रकार शेष शय्या उत्तरोत्तर इतना समझ लेना चाहिए / अर्थात् वे एक दूसरे से इतरा इतरा :- अप्रशस्ततरा है। पाहुहिं की व्याख्या चूणिकार के शब्दों में--पाहुडेहि--पाहुडंति वा पहेणगं ति बा एगट्ठ / कस्य ? कर्मबन्धस्य / निरतस्य पाहुडाई दुग्गतिपाहुडाई च अप्पसत्था सेवणाए। एसा वज्जकिरिया।" अर्थात्पाहुडं और पहेणगं (वस्तु की भेंट) ये दोनों एकार्थक हैं, यानी एक ही अर्थ-प्रयोजन को सिद्ध करते हैं। किस अर्थ को? कर्मबन्ध के अर्थ को / सावध कर्म से विरत साधु के लिए (साधु के निमित्त बने हए मकानों की भेंट) दुर्गति को भेंट है, क्योंकि इसके पीछे अप्रशस्तभावों का सेवन होता है। यह बर्य क्रिया है। 5. पाईण वा के आगे '4' का अंक शेष तीनों दिशाओं का सूचक है। 6. यहाँ 'जाव' शब्द सू० 435 के अनुसार 'आयारगोयरे' से लेकर 'त रोयमाणेहि' तक का समग्र पाठ समझना चाहिए। 'समण-माहण' के आगे 'जाव' शब्द सूत्र 435 के अनुसार 'पगणिय' तक समग्र पाठ का सूचक है। 8. पमणिय आदि के बाद '2' का अंक सर्वत्र उसी शब्द की पुनरावृत्ति का सूचक हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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