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________________ प्रथम अध्ययन : छठा उद्देशक : सूत्र 360 साधु के इस प्रकार कहने पर यदि वह (गृहस्थ भाई या बहन) शोतल या अल्प उष्णजल से हाथ आदि को एक बार या बार-बार धोकर उन्हीं में अशनादि आहार लाकर देने लगे तो उस प्रकार के पुरःकर्म-रत (देने से पहले हाथ आदि धोने के दोष से युक्त) हाथ आदि से लाए गए अशनादि चतुर्विध आहार को अप्रासुक और अनेषणीय समझकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे। यदि साधु यह जाने कि दाता के हाथ, पात्र आदि भिक्षा देने के लिए (पुरःकर्मकृत) नहीं धोए हैं, किन्तु पहले से ही गीले हैं ; (ऐसी स्थिति में भी) उस प्रकार के सचित्त जल से गीले हाथ, पात्र, कुड़छी आदि से लाकर दिया गया आहार भी अप्रासुक-अनेषणीय जानकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे / / यदि यह जाने कि हाथ आदि पहले से गीले तो नहीं हैं, किन्तु सस्निग्ध (जमे हुए थोड़े जल मे युक्त) हैं, तो उस प्रकार के मस्निग्ध हाथ आदि से लाकर दिया गया आहार........भी ग्रहण न करे। यदि यह जाने कि हाथ आदि जल से आर्द्र या सस्निग्ध तो नहीं है, किन्तु क्रमश: सचित्त मिट्टी, क्षार (नौनी) मिट्टी, हड़ताल, हिंगलू (सिंगरफ), मेनसिल, अंजन, लवण, गेरू, पीली मिट्टी, खड़िया मिट्टी, सौराष्ट्रिका (गोपीचंदन), बिना छना (चावल आदि का) आटा, आटे का चोकर, पीलुपणिका के गीले पत्तों का चूर्ण आदि में से किसी से भी हाथ आदि संसृष्ट (लिप्त) हैं तो उस प्रकार के हाथ आदि से लाकर दिया गया आहार.......भी ग्रहण न करे। यदि वह यह जाने कि दाता के हाथ आदि सचित्त जल में आई, सस्निग्ध या सचित्त मिट्टी आदि से असंसृष्ट (अलिप्त) तो नहीं है, किन्तु जो पदार्थ देना है, उसी से (किसी दूसरे के) हाथ आदि संसृष्ट (सने) हैं तो ऐसे (उसके) हाथों या बर्तन आदि से दिया गया अशनादि आहार प्रासुक एवं एषणीय मानकर प्राप्त होने पर ग्रहण कर सकता है। (अथवा) यदि वह भिक्षु यह जाने कि दाता के हाथ आदि सचित्त जल, मिट्टी आदि मे संसृष्ट (लिप्त) तो नहीं हैं, किन्तु जो पदार्थ देना है, उसी से उसके हाथ आदि संसृष्ट हैं तो ऐसे हाथों या बर्तन आदि से दिया गया अशनादि आहार प्रासुक एवं एषणीय समझकर प्राप्त होने पर ग्रहण करे। विवेचन--- अंगोपांग-संयम और आहारग्रहण-इस सूत्र में आहार ग्रहण के पूर्व मन, वचन काया और इन्द्रियों की चपलता, असंयम और लोलुपता से बचने का विधान किया गया है। इसमें हाथ, पैर, भुजा, शरीर के अंगोपांग, नेत्र और अंगुलि और वाणी के संयम का ही नहीं, अपितु जिह्वा, श्रोत्र, स्पर्शन्द्रिय आदि पर भी संयम रखने की, साथ ही इन सबके असंयम अनियन्त्रण से हानि की बात भी ध्वनित कर दी है। दरवाजे की चौखट ,जीर्ण-शीर्ण या अस्थिर हो तो उसे पकड़कर खड़े होने से अकस्मात् वह गिर सकती है, स्वयं गिर सकता है, स्वयं के चोट लग सकती है / बर्तन आदि धोने या हाथ मुंह धोने के स्थान पर खड़े रहने से साधु के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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