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________________ 18 आधारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध 'अ-स्व' है, उसकी प्रतिज्ञा से-यानी उसको लक्ष्य में रखकर या उनको मैं आहार दूंगा, इस प्रकार के अभिप्राय से...। चूर्णिकार ‘अस्सिपडियाए' पाठान्तर मानकर इसका संस्कृत रूपान्तर 'अस्मिन् प्रतिज्ञाय' स्वीकार करके अर्थ करते हैं-'अस्मिन् साधु एग प्रतिज्ञाय प्रतीत्य वा'—किसी एक साधु के विषय में प्रतिज्ञा करके कि मैं इसी साधु को दूंगा, अथवा किसी एक साधु की अपेक्षा से / हमें पहला अर्थ अधिक संगत प्रतीत होता है।' ___ तीन प्रकार का उद्देश्य -इन दोनों सूत्रों में तीन प्रकार के उद्देश्य से निष्पन्न आहार का प्रतिपादन है (1) किसी एक या अनेक सार्मिक साधु या साध्वी के उद्देश्य से बनाया हुआ तथा क्रीत आदि तथाप्रकार का आहार / (2) अनेक श्रमणादि को गिन-गिनकर उनके उद्देश्य से बनाया हुआ। (3) अनेक श्रमणादि के उद्देश्य से बनाया हुआ। ये तीनों प्रकार के आहार औद्देशिक होने से दोषयुक्त हैं, इसलिए अग्राह्य हैं। 'साहम्मिय'..' का अर्थ है सार्मिक / अर्थात् जो आचार, विचार और वेष से समान हो।' 'समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए'-का अर्थ है-श्रमण, माहन, अतिथि, दरिद्र और याचक / श्रमण पाँच प्रकार के होते हैं--(१) निर्ग्रन्थ--(जैन), (2) शाक्य (बौद्ध), (3) तापस, (4) गैरिक और (5) आजीवक (गोशालकमतीय)। वृत्तिकार ने माहन का अर्थ 'ब्राह्मण' किया है, जो भोजन के समय उपस्थित हो जाता है, अतिथि--अभ्यागत या मेहमान / कृपण का अर्थ किया है--दरिद्र, दीन-हीन / वनीमक या बनीपक का अर्थ किया है-बन्दीजन-भाट, चारण आदि; परन्तु दशवकालिकसूत्र की वृत्ति में वनीपक का अर्थ कृपण किया है, जबकि स्थानांग में इसका अर्थ याचक-भिखारी किया है, जो अपनी दीनता बताकर या दाता की प्रशंसा करके आहारादि प्राप्त करता है। कृपण 1. (क) आचा० टीका पत्रांक 325 / (ख) चूणि मूल पाठ टिप्पण पृ० 107 // 2. आचा० टीका पत्रांक 325 के आधार पर। 3. आचा० टीका पत्रांक 325 / 4. स्थानांग वृत्ति के अनुसार वनीपक की व्याख्या इस प्रकार है-दूसरों के समक्ष अपनी दरिद्रता दिखाने से, या उनकी प्रशंसा करने से जो द्रव्य मिलता है, वह 'वनी' है और जो उस 'वनी' को पिये, ग्रहण करे, वह 'वनीपक' है। बनीपक के पांच भेद हैं(१) अतिथि-वनीपक, (2) कृपण-वनीपक, (3) ब्राह्मण-वनीपक, (4) श्व-वनीपक, (5) श्रमणवनीपक। अतिथि-भक्त के समक्षदान की प्रशंसा करके दान लेने वाला 'अपिति-बनीपक' है। वैसे ही कृपणभक्त के समक्ष कृपण-दान की, ब्राह्मण, श्वान, श्रमण आदि के भक्त के समक्ष उनके दान की प्रशंसा करके दान चाहने वाला / एवान-प्रशंसा का एक उदाहरण टीकाकार ने उधत किया है। 'श्ववनीपक' श्वान-भक्त के समक्ष कहता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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