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________________ 330 आचारांग सूत्र–प्रथम श्रुतस्कन्ध ही अधिक पड़ती थी। इसके अतिरिक्त वर्षा ऋतु में पानी अधिक होने से वहाँ दल-दल हो जाती जिससे डाँस, मच्छर, जलौका आदि अनेक जीव-जन्तु पैदा हो जाते थे। इनका बहुत ही उपद्रव होता था। लाढ़ देश के ववभूमि और सुम्हभूमि नामक जनपदों में नगर बहुत कम थे। गाँव में बस्ती भी बहुत कम होती थी। वहाँ लोग अनार्य (क्रूर) और असभ्य होते थे। साधुओं-जिसमें भी नग्न साधुनों से परिचित न होने कारण वे साधु को देखते ही उस पर टूट पड़ते थे। कई कुतूहलवश और कुछ जज्ञासावश एक साथ कई प्रश्न करते थे, परन्तु भगवान की अोर से कोई उत्तर नहीं मिलता, तो वे उत्तजित होकर या शंकाशील होकर उन्हें पीटने लगते। भगवान को नग्न देखकर कई बार तो वे गाँव में प्रवेश नहीं करने देते थे। अधिकतर सूने घरों, खण्डहरों, खुले छप्परों या पेड़, वन अथवा श्मशान में ही भगवान को निवास मिलता था, जगह भी ऊबड़खाबड, खड्डों और धूल से भरी हुई मिलती, कहीं काष्ठासन, फलक और पट्ट मिलते, पर वे भी धूल, मिट्टी एवं गोबर से सने हुए होते। लाढ़ देश में तिल नहीं होते थे, गाएँ भी बहुत कम थी, इसलिए वहां धी-तेल सुलभ नहीं था, वहाँ के लोग रूखा-सूखा खाते थे, इसलिए वे स्वभाव से भी रूखे थे, बात-बात में उत्तेजित होना, गाली देना या झगड़ा करना, उनका स्वभाव था। भगवान को भी प्रायः उनसे रूखा-सूखा माहार मिलता था।' वहाँ सिंह आदि बन्य हिंस्र पशुओं या सर्पादि विषैले जन्तुओं का उपद्रव था या नहीं, इसका कोई उल्लेख शास्त्र में नहीं मिलता, लेकिन वहाँ कुत्तों का बहुत अधिक उपद्रव था। वहाँ के कुत्ते बड़े खू ख्वार थे। वहाँ के निवासी या उस प्रदेश में विचरण करने वाले अन्य तीथिक भिक्षु कुत्तों से बचाव के लिए लाठी और डण्डा रखते थे, लेकिन भगवान तो परम अहिंसक थे, उनके पास न लाठी थी, न डण्डा / इसलिए कुत्ते निःशंक होकर उन पर हमला कर देते थे। कई अनार्य लोग छू-छू करके कुत्तों को बुलाते और भगवान को काटने के लिए उकसाते थे। निष्कर्ष यह है कि कठोर क्षेत्र, कठोर जनसमूह, कठोर और रूखा खान-पान, कठोर और रूक्ष व्यवहार एवं कठोर एवं ऊबड़-खाबड़ स्थान आदि के कारण लाढ देश साधुओं के विचरण के लिए दुष्कर और दुर्गम था। परन्तु परीषहों और उपसर्गों से लोहा लेने वाले महायोद्धा भगवान महावीर ने तो उसी देश में अपनी साधना की अलख जगाई; इन सब दुष्परिस्थितियों में भी वे समता की अग्नि-परीक्षा में उसीर्ण हुए। वास्तव में, कर्मक्षय के जिस उद्देश्य से भगवान उस देश में गए थे, उसमें उन्हें पूरी सफलता मिली। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं---"नागो गामसीसे वा पारए तत्य से महावीरे।" जैसे संग्राम के मोर्चे पर खड़ा हाथी भालों आदि से बींधे जाने पर भी पीछे नहीं हटता, वह 1. आवश्यक चूणि पृ० 318 / 2. (क) प्राचा० शीला टीका पत्रांक 310-311 / (ख) मायारो (मुनि नथमलजी) पृ० 347 के प्राधार पर / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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