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________________ ... आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्तन्ध इन सब परीषहों-उपसर्गों के समय भगवान मौन को सर्वोत्तम धर्म मानकर अपने ध्यान में मग्न हो जाते थे। वे अशिष्ट व्यवहार करने वाले के प्रति बदला लेने का जरा भी विचार मन में नहीं लाते थे / वृत्तिकार और चूर्णिकार दोनों इसी प्राशय की व्याख्या करते हैं / ' / / द्वितीय उद्देशक समाप्त // तईओ उद्देसओ .. . (लाढ देश में) उत्तम तितिक्षा-साधना . * 293. तणफासे सीतफासे य तेउफासे य दंसमसगे य / अहियासते सया समिते फासाई विरूवरूवाई / / 8 / / 294. अह दुच्चरलाढमचारी वज्जमूर्मि च सुम्भ भूमि च / ... : पंत सेज्ज सेविसु आसणगाई चेव पंताई / / 8 / / 295. लाहिर तस्सुवसग्गा बहवे जाणवया लसिसु / अह लूहदेसिए भत्ते कुक्कुरा तत्थ हिसिसु णितिसु / / 82 / / 296. अप्पे जणे णिवारेति लसणए" सणए डसमाणे / ... छुच्छुकारेंति आहेतु समणं कुक्कुरा दसंतु ति / / 83 / / 297. एलिक्खए जणे भुज्जो बहवे बज्जभूमि फरूसासी। लट्ठि गहाय णालीयं समणा तस्थ एव विहरिसु // 84 // 298. एवं पि तत्थ विहरंता पुठ्ठपुवा अहेसि सुणएहि / संलुचमाणा सुणएहि दुच्चरगाणि तत्थ लाहिं // 85 // 1. (क) प्राचा० शीला० टीका पत्र 308 / (ख) प्राचारांग चूणि मूल पाठ टिप्पण सूत्र 288 / 2. इसका पूर्वापर सम्बन्ध जोड़ कर चूर्णिकार ने अर्थ किया है—एरिसेसु सयण-आसरलेसु वसमाणस्म :: 'लासु ते. उत्सग्गा बहवे जाणवता आगम्म लूसिसु'--'लूस हिंसायाम्' कट्ठम टिठप्पहारादिएहि 3. उमम्मेहि य लूसें ति / एगे आहु-दंतेहि खायते ति।" अर्थात् ---ऐसे शयनासनों में निवास करते .....हए भगवान को लाढदेश के गांवों में बहुत-से उपसर्ग हुए। बहुत-से उस देश के लोग ऊजड़ मार्गों में . आकर भगवान को लकड़ी, मुक्के आदि के प्रहारों से सताते थे। लूस धातु हिंसार्थक है, इसलिए ऐसा अर्थ होता है। कई कहत है-भगवान को वे दांतों से काट खाते थे। अर्थ है। 3. 'लसणगा' जं भणितं होति त (भ) क्खणगा, भसंतीति भसमारणा, जे वि णाम ण खायंति ते वि उनकारति आसु / आइंसुत्ति आहणेत्ता केति चोर चारियं तिच मण्णमाणा केइ पदोसेण" कत जो लषणक होते हैं वे काट खाते हैं, जो भौंकते हैं, वे काट नहीं खाते। कई लोग कुत्तों को छुछकार कर पीछे लगा देते थे। कई लोग रात्रि काल में भगवान को चोर या गुप्तचर समझ कर पीटते थे। यह अर्थ चूर्णिकार ने किया है। ... 5. चणिकार ने इसका अर्थ किया है-दुक्खं चरिज्जति दुच्चरगाणि गामादीणि........ -जहां दःख से - विवरण हो सके, उन्हें दुश्च रक ग्राम आदि कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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