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________________ अष्टम अध्ययन : अष्टम उदेशक : सूत्र 247-253 में भगवान महावीर ने बताया कि पादपोपगमन दो प्रकार का है--निर्झरिम और अनिर्झरिमां यह अनशन यदि ग्राम आदि (बस्ती) के अन्दर किया जाता है तो निहारिम होता है। अर्थात् प्राणत्याग के पश्चात् शरीर का दाहसंस्कार किया जाता है और बस्ती से बाहर जंगल में किया जाता है तो अनिर्झरिम होता है दाहसंस्कार नहीं किया जाता। नियमतः यह अनशन अप्रतिकर्म है / इसका तात्पर्य यह है कि पादपोपगमन अनशन में साधक पादप-क्ष की तरह निश्चल-नि:स्पन्द रहता है / वृत्तिकार ने बताया है-पादपोपगमन अनशन का साधक ऊर्वस्थान से बैठता है; पार्श्व से नहीं, अन्य स्थान से भी नहीं / वह जिस स्थान से बैठता या लेटता है, उसी स्थान में वह जीवन-पर्यन्त स्थिर रहता है, स्वतः वह अन्य स्थान में नहीं जाता। इसीलिए कहा गया है—'सम्वगायनिरोहेवि ठाणातो न वि उम्भमे / प्रायोपगमन में 7 बातें विशेष रूप से आचरणीय होती हैं-(१) निर्धारित स्थान से स्वयं चलित न होना, (2) शरीर का सर्वथा व्युत्सर्ग, (3) परीषहों और उपसर्गों से जरा भी विचलित न होना, अनुकल-प्रतिकूल को समभाव से सहना, (4) इहलोक-परलोक सम्बन्धी काम-भोगों में जरा-सी भी प्रासक्ति न रखना, (5) सांसारिक वासनाओं और लोलुपतामों को न अपनाना, (6) शासकों या दिव्य भोगों के स्वामियों द्वारा भोगों के लिए मामन्त्रित किए जाने पर भी ललचाना नहीं, (7) सब पदार्थों से अनासक्त होकर रहना / ' दिगम्बर परम्परा में प्रायोपगमन के बदले प्रायोग्यगमन एवं पादपोपगमन के स्थान पर पादोपगमन शब्द मिलते हैं / भव का अन्त करने के योग्य संहनन और संस्थान को प्रायोग्य कहते हैं। प्रायोग्य की प्राप्ति होना---प्रायोग्यगमन है। पैरों से चलकर योग्य स्थान में जाकर जो मरण स्वीकारा जाता है, उसे पादोपगमन कहते हैं / यह अनशन प्रात्म-परोपकार निरपेक्ष होता है / इसमें स्व-पर-दोनों के प्रयोग (सेवा-शुश्रुषा) का निषेध है। इस अनशन मेंसाधक मल-मूत्र का भी निराकरण न स्वयं करता है, न दूसरों से कराता है। कोई उस पर सचित्त पृथ्वी, पानी, अग्नि, वनस्पति आदि फेंके या कडाकर्कट फेके, अथवा गंध पुष्पादि से पूजा करे या अभिषेक करे तो न वह रोष करता है, न प्रसन्न होता है, न ही उनका निराकरण करता है; क्योंकि वह इस अनशन में स्व-पर प्रतीकार से रहित होता / 1. भगवती सूरर शतक 25 उ० 7 का मूल एवं टीका देखिए 'से कि तं पाओवगमणे ?' 'पाओवगमणे दुविहे पणते, तंजहा---गोहारिमे या अणीहारिमे य गियमा अपडिएकमे / से तं पाओवगमगे।' 2. आचारांग मूल एवं वृत्ति पत्रांक 294, 295 / 3. (क) भगवती पाराधना वि. 29 / 11316 / (ख) धवला 1 / 1 / 23 / 4 / (ग) सो सल्लेहियदेहो जम्हा पाओवगमगमुवजादि उन्चारावि वि किवणमवि गरिव पवोगदो तम्हा // 2065 / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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