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________________ माचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्करला (3) आहटु परिणं आणखरसामि आहेडं च सातिजिरसामि (4) भाटु परिष्ण आणखेस्सामि आहडं च नो सातिज्जिस्सामि (5) भाट्ट परि नो आमबखेरसामि माहई व सातिजिस्सामि (6) माहटु परिष्णं गो मागवलेस्सामि आहडं ब गो सानिनिस्सामि / लापवियं' आगममाणे त से अभिसमण्यामते भवति / जहेतं भगवता पवेदितं तमेव अभिसमेच्चा सम्वतो सम्वलाए सम्मतमेव समभिजामिया) एक से अहाकिट्टितमेव धम्मं समभिनागमागे संते विरते सुसमाहिती / बस्भावि सस कालपरियाए / से तत्थ वियंतिकारए। इच्छेतं विमोहायतमं हितं सुहं खमं णिस्सेसं आणुगामियं ति बैंमि / // पंचमो उसओ समतो। 219. जिस भिक्षु का यह प्रकल्प (आचार-मर्यादा) होता है कि मैं ग्लान हूँ, मेरे सामिक साधु अम्लान हैं, उन्होंने मुझे सेवा करने का वचन दिया है, यद्यपि मैंने अपनी सेवा के लिए उनसे निवेदन नहीं किया है, तथापि निर्जरा की अभिकांक्षा (उद्देश्य) से सार्मिकों द्वारा की जानी वाली सेवा मैं रुचिपूर्वक स्वीकार करूंगा / (1) (अथवा) मेरा साधर्मिक भिक्षु म्लान है, मैं अम्लान हूँ; उसने अपनी सेवा के लिए मुझे अनुरोध नहीं किया है, (पर) मैंने उसकी सेवा के लिए उसे वचन दिया है। अतः निर्जरा के उद्देश्य से तथा पर पर उपकार करने की दृष्टि से उस साधर्मी की मैं सेवा करूगा / जिस भिक्षु का ऐसा प्रकल्प हो, वह उसका पालन करता हुआ भले ही प्राण त्याग कर दे, (किन्तु प्रतिज्ञा भंग न करे)। (2) ___ कोई भिक्षु ऐसी प्रतिज्ञा लेता है कि मैं अपने ग्लान सामिक भिक्षु के लिए आहारादि लाऊँगा, तथा उनके द्वारा लाये हुए आहारादि का सेवन भी करूँमा / (3) (अथवा) कोई भिक्षु ऐसी प्रतिज्ञा लेता है कि मैं अपने म्लान सार्मिक भिक्षु के लिए माहारादि लाऊँगा, लेकिन उनके द्वारा लाये हुए अाहारादि का सेवन नहीं करूंगा। (4) (अथवा) कोई भिक्षु ऐसी प्रतिज्ञा लेता है कि मैं सार्मिकों के लिए आहारादि महीं लाऊँगा किन्तु उनके द्वारा लाया हुआ सेवन करूंगा (5) (अथवा) कोई भिक्षु प्रतिज्ञा करता है कि न तो मैं सार्मिकों के लिए पाहारादि लाऊँगा और न ही मैं उनके द्वारा लाये हुए आहारादि का सेवन करूगा / (6) (यों उक्त छः प्रकार की प्रतिज्ञानों में से किसी प्रतिज्ञा को ग्रहण करने के 6. इसका अर्थ चणि में यह है-पडिण्यत्तस्स अह तव इच्छाकारेण वेयावडियं करेमिजाव लायसि / ' अर्थात् --- मैं प्रतिज्ञा लिये हुए तुम्हारी सेवा तुम्हारी इच्छा होगी, तो करू गा, ग्लान मत हो। 7. 'अभिकख का अर्थ चूणि में इस प्रकार है-वेयायचगुणे अभिकखित्ता बेयावडियं करिस्सामि' __यावृत्य का गुण प्राप्त करने की इच्छा से वैयावृत्य करूंगा। 1. (क) 'लावियं आगममाणे' का अर्थ धूणि में यों है-"लापतित- लधुता / लापवितं दव्वे भावे य / तं . भागममाणे-इश्छमाणे"।' (ख) कोष्ठकान्तर्गत पाठ चणि व वृत्ति में हैं। अन्य प्रतियों में नहीं मिलता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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