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________________ 23. आधारांग सूत्र--प्रथम श्रुतकन्य पास ज्ञानादि रत्नत्रय रूप धन होता है, अथवा द्रव्य का अर्थ भव्य है-मुक्तिगमन योग्य है।' 'द्रविक' का अर्थ दयालु भी होता है। . "गिदिव्यद्रे-का अर्थ निष्ठितार्थ-कृतार्थ होता है / जो प्रात्मतृप्त हो, वही कृतार्थ हो सकता है। प्रात्मतृप्त वही हो सकता है, जिसको विषय-सुखों की पिपासा सर्वथा बुझ गयी हो। इसीलिए वृत्तिकार ने इसका अर्थ किया है-'विषयसुख-निपिपासः निष्ठितार्यः / " ", : इस प्रकार प्रस्तुत उद्देशक में गौरव-त्याग की इन विविध प्रेरणामों पर साधक को दत्तचित्त होकर भौतिक पिपासायों से मुक्त होने की शिक्षा दी गयी है। // चतुर्थ उद्देशक समाप्त / / पञ्चम उदेसओ पंचम उद्देशक तितिक्ष-धूत का धर्म कथन 196. से गिहेसु गिहतरेसु वा गामैसु वा गामंतरैसु वा नगरेसु वा णगरंतरेसु वा जज़वएसु वा जणवयंतरेसु वा संतेगतिया जणा लसगा भवंति अदुवा कामा फुसंति / ते फासे पुट्ठो छोरो अधियासए ओए समितदसणे। .. व्यं लोगस्स जाणित्ता पाईणं पडोणं दाहि उदीणं आइक्खे विमए कि वेदखी। ...से उठिएसु वा अगुठ्ठिएसु वा सुस्सूसमाणेसु पवेदए संति विरति उवसमं जिव्वाणं सोयवियं अज्जवियं मद्दवियं लापवियं अतिवत्तियं सवेसि पाणाणं सव्वेसि भूताणं सम्वेसि मोवाणं सबेसि सत्ताण, अणुवीइ भिक्ख धम्ममाइक्खेज्जा। 197. अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खमाणे णो अत्ताणं आसादेज्जा णो परं आसादेज्जा गो अण्णाइं पाणाई भूयाई जीवाइं सत्ताई आसादेज्जा। 1. आचासंग चूणि प्राचा० मूल पाठ टिप्पणी सुत्र 194 / 2. आचा० शीला टीका पत्रांक 230 / 3. इसके बदले चूणिसम्मत पाठान्तर और उसका अर्थ देखिए --"गामंतरं तु गामतो गामाणं वा अंतरं गामंतरं पंथो उपहो वा। एवं नगरेसुगा नगरंतरेसु वा नाव रायहाणीसु वा रामहाणिमंतरेसु वा / एत्थ सण्णिगासो कायको अत्यतो, तं जहा-गामस्स य नगरस्स य अंतये, एवं गामस्स खेडस्स य अंतरे, जाव गामस्स रायहाणीए य, एवं एक्क्क छ। तेणं जावं अपच्छिमे रायहागीए य / एवं एक्केक्कं तेसु जहुद्दि→सु ठाणेसु नणवयंतरेसु वो" इस विवेचन के अनुसार चूर्णिसम्मत पाठान्तर है-'गामंतरेसु वा खेडेसु वा खेडतरेसु वा कबडेसु वा कम्बडतरेसु वा मडबेसु वा मध्यंतरेसु वा दोणमुहेसु वा दोणमुहंसरेसु वा पट्टणेसु वा पट्टणंतरेसु वा आपरेस वा आगरंतरेसु वा आसमेसु वा आसमंतरेसु वा संवाहेसु वा संवाहंतरेसु वा यहाणीसु वा रायहाणिअंतरेसु वा (जणवएसु वा) जणवयंतरेस वा' अर्यात्-ग्राम और नगर के बीच में ग्राम और खेड़ के बीच में यावत् ग्राम और राजधानी तक / इसी प्रकार उन यथोद्दिष्ट स्थानों में से एक-एक बीच में डालना चाहिए-जणवयंतरेसु वा तक। तब पाठ इस प्रकार होगा जो कि ऊपर बताया गया है। चूणिसम्मत पाठ यही प्रतीत होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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