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________________ विराट् है, जब हम आचारांग के व्याख्या-साहित्य को पढते हैं तो स्पष्ट परिज्ञात होता है कि सूत्रीय शन्दबिन्दु में अर्थ-सिन्धु समाया हुआ है / एक-एक सूत्र पर, और एक-एक शब्द पर विस्तार से ऊहापोह किया गया है / इतना चिन्तन किया गया है, कि ज्ञान की निर्मल गंगा बहती हुई प्रतीत होती है। श्रमणाचार का सूक्ष्म विवेचन और इतना स्पष्ट चित्र प्रन्यत्र दुर्लभ है / कवि ने कहा है “यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित्" प्राध्यात्मिक साधना के सम्बन्ध में जो यहाँ है वह अन्यत्र भी है, और जो यहां नहीं है, वह अन्यत्र भी नहीं है। आचारांग में बाह्य और आभ्यन्तर इन दोनों प्रकार के प्राचार का गहराई से विश्लेषण किया गया है। प्राचारांग का विषय पूर्व पंक्तियों में यह बताया है कि प्राचारांग का मुख्य प्रतिपाद्य विषय “प्राचार" है। समवायांग' और नन्दीसूत्र में प्राचारांग में आये हुए विषय का संक्षेप में निरूपण इस प्रकार है आचार-गोचर, विनय, वैनयिक, (विनय का फल) उत्थितासन,णिषण्णासन और शयितासन, गमन, चंक्रमण, प्रशन प्रादि की मात्रा, स्वाध्याय प्रभृति में योग नियुञ्जन, भाषा समिति, गुप्ति, शय्या, उपधि, भक्तपान, उद्गम-उत्थान, एषणा प्रभृति को शुद्धि, शुद्धाशुद्ध के ग्रहण का विवेक, व्रत, नियम, तप, उपधान अादि / आचारांग-नियुक्ति में आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौ अध्ययनों का सार संक्षेप में इस प्रकार है। (1) जीव-संयम, जीवों के अस्तित्व का प्रतिपादन और उसकी हिंसा का परित्याग / (2) किन कार्यों के करने से जीव कर्मों से प्राबद्ध होता है और किस प्रकार की साधना करने से जीब कर्मों से मुक्त होता है / (3) श्रमण को अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग समुपस्थित होने पर सदा समभाव में रहकर उन उपसर्गों को सहन करना चाहिए। (4) दूसरे साधकों के पास अणिमा, गणिमा, लघिमा आदि लब्धियों के द्वारा प्राप्त ऐश्वर्य को निहार कर साधक सम्यक्त्व से विचलित न हो। (5) इस विराट् विश्व में जितने भी पदार्थ हैं वे निस्सार हैं, केवल सम्यक्त्व रत्न ही सार रूप है। उसे प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ करें। (6) सद्गुणों को प्राप्त करने के पश्चात् श्रमणों को किसी भी पदार्थ में प्रासक्त बन कर नहीं रहना चाहिये। (7) संयम-साधना करते समय यदि मोह-जन्य उपसर्ग उपस्थित हों तो उन्हें सम्यक् प्रकार से सहन करना चाहिये / पर साधना से विचलित नहीं होना चाहिये। (8) सम्पूर्ण गुणों से युक्त अन्तक्रिया की सम्यक् प्रकार से प्राराधना करनी चाहिये / (9) जो उत्कृष्ट-संयम-साधना, तपःपाराधना भगवान् महावीर ने की, उसका प्रतिपादन किया गया है। प्राचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में नौ अध्ययन हैं / चार चूल किानों से युक्त द्वितीय श्रुतस्कन्ध में सौलह अध्ययन हैं, इस तरह कुल पच्चीस अध्ययन हैं / आचारांग नियुक्ति में जो अध्ययनों का क्रम निर्दिष्ट 1. समवायांग प्रकीर्णक, समवाय सूत्र 89 / 2. नन्दीसूत्र सूत्र 80 / 3. आचारांग नियुक्ति गाथा 33, 34 / [26] For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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