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________________ पंचम अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 158 तीनों की समन्विति को लेकर मोक्ष की साधना-सेवना की थी और अत्यन्त विकट-उत्कट कर्मों को काटने के लिए ज्ञान-दर्शन-चारित्र (समभाव रूप) के साथ दीर्घ तपस्या की थी। इसलिए ज्ञानादि तीनों मिलकर मोक्ष का मार्ग है यह प्रतिपादन उन्होंने स्वयं अनुभव के बाद किया था। इससे दूसरे अर्थ की भी संगति बिठाई जा सकती है कि भगवान महावीर ने अपने पूर्वकृत-कर्मों की सन्तति (परम्परा) का क्षय स्वयं दीर्घतपस्याएँ करके तथा परीषहादि को समभावपूर्वक सहन करके किया है। यही (ज्ञानादित्रयपूर्वक तप का) उपदेश उन्होंने अपने शिष्यों को देते हुए कहा है-'तम्हा बेमि जो णिहेज्ज वीरियं'-- मैंने ज्ञानादि त्रय की सन्धि के साथ तपश्चर्या द्वारा कर्म-संतति का क्षय करने का स्वयं अनुभव किया है, इसलिए कहता हूँ"ज्ञानादि अय एवं तपश्चरण आदि की साधना करने की अपनी शक्ति को जरा भी मत छिपायो, जितना भी सम्भव हो सके अपनी समस्त शक्ति को ज्ञानादि की साधना के साथ-साथ तपश्चर्या में भोंक दो।" तीन प्रकार के साधक 158. जे पुस्वट्ठाई णो पच्छाणिवाती। जे पुवठ्ठाई पच्छाणिवाती / जे णो पुस्वट्ठाई णो पच्छाणिवाती / से वि तारिसए सिया जे परिण्णाय लोगमणेसिति / एवं णिदाय मुणिणा पवेदितं-इह आणखी पंडिते अणिहे पुवावररायं जयमाणे सया सोलं सपेहाए सुणिया भवे अकामे असंझे / 158. (इस मुनिधर्म में प्रवजित होने वाले मोक्ष-मार्ग-साधक तीन प्रकार के होते हैं)-(१) एक वह होता है-जो पहले साधना के लिए उठता (उद्यत) है और बाद में (जीवन पर्यन्त) उत्थित ही रहता है, कभी गिरता नहीं। (2) दूसरा वह है-जो पहले साधना के लिए उठता है, किन्तु बाद में गिर जाता है। (3) तीसरा वह होता है--जो न तो पहले उठता है और न ही बाद में गिरता है। जो साधक लोक को परिज्ञा से जान और त्याग कर पुन: (पचन-पाचनादि सावध कार्य के लिए) उसी का आश्रय लेता या ढूढ़ता है, वह भी वैसा ही (गृहस्थतुल्य) हो जाता है। इस (उत्थान-पतन के कारण) को केवलज्ञानालोक से जानकर मुनीन्द्र 1. आचा० शीला० टीका पत्रांक 189 / 2. इसके बदले चणि में इस प्रकार पाठ है-से वि तारिसए चेव' जे परिपणात लोगमन्णेसति अकार लोबा जे अपरिण्णाय लोगं छज्जीवकायलोग अणुएमति- अण्णेसति / पहिज्जइ य–लोगमणुस्सिते, परिणात पच्चक्खाय''पुणरवि तदत्था लोग अस्सिता।" अकार का लोप होने से लोक (षड्जीवनिकाय लोक) का स्वरूप न जानकर पुन: उसी का अन्वेषण करता है। अथवा यह पाठ है.--'लोगमणस्सिते', जिसका अर्थ होता है-षड़जीवनिकायरूप लोक को ज्ञपरिज्ञा रो जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से लोकप्रवाद छोड़ कर पुनः उसके लिए लोक के आश्रित होना / .. " 3. 'सपेहाए' के बदले 'संपेहाए' पाठ है। सपेहाए का अर्थ चर्णिकार कहते हैं 'सम्म पेक्ख' सदा शील का सम्यक् प्रेक्षण करके / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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